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रसरलाकर या रसेन्द्रमंगल )
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[रसहृदयतन्त्र
का अत्यन्त उपयोगी एवं विशाल ग्रन्थ है। रसोत्पत्ति, महारसों का शोधन, उपरस, साधारण रसों का शोधन मादि विषय पुस्तक के प्रारम्भिक ग्यारह अध्यायों में वर्णित हैं तथा शेष भागों में ज्वरादि रोगों का वर्णन है। इसमें रसशालानिर्माण का भी निर्देश किया गया है तथा कतिपय अर्वाचीन रोगों का वर्णन है। इसमें खनिजों (रसशास्त्र में) को पांच भागों में विभक्त किया गया है-रस, उपरस, साधारणरस, रत्न तथा लोह । इसका हिन्दी अनुवाद आचार्य अम्बिकादत्त शास्त्री ए० एम० एस० ने किया है।
आधारमन्य-आयुर्वेद का बृहत इतिहास-श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ।
रसरत्नाकर या रसेन्द्रमंगल-आयुर्वेद का प्रन्थ । यह आयुर्वेदीय रसविद्या का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। इसके लेखक नागार्जुन हैं जिनका समय सातवीं या आठवीं शताब्दी है । इसका प्रकाशन १९२४ ई० में श्रीजीवराम कालिदास ने गोंडल से किया है। इस ग्रन्थ में आठ अध्याय थे किन्तु उपलब्ध ग्रन्थ खण्डित है और इसमें चार ही अध्याय हैं। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध महायान सम्प्रदाय से है और इसका प्रतिपाद्य विषय रसायन योग है। लेखक ने रासायनिक विधियों का वर्णन संवादशैली में किया है जिसमें नागार्जुन, मांडव्य, वटयक्षिणी, शालिवाहन तथा रत्नघोष ने भाग लिया है। ग्रन्थ में विविध प्रकार के रसायनों की शोधनविधि प्रस्तुत की गयी हैजैसे राजावत्तंशोधन, गन्धकशोधन, दरदशोधन, माक्षिक से ताम्र बनाना तथा माक्षिक एवं ताप्य से ताम्र की प्राप्ति । पारद और स्वर्ण के योग से दिव्य शरीर प्राप्त करने की विधि देखिए-रसं हेम समं मद्यं पीठिका गिरिगन्धकम् । द्विपदी रजनीरम्भां मर्दयेत् टंकणान्विताम् ॥ नष्टपिष्टं च मुष्कं च अन्धमूष्यां निधापयेत् । तुषाल्लघुपुटं दत्वा यावद् भस्मत्वमागतः । भक्षणात् साधकेन्द्रस्तु दिव्यदेहमवाप्नुयात् :! ३।३०-३२ । नागार्जुन रचित दूसरा ग्रन्थ 'आश्चर्ययोगमाला' भी कहा जाता है।
आधारग्रंथ-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-श्रीअत्रिदेव विद्यालंकार ।
रसहृदयतन्त्र-आयुर्वेदशास्त्र का ग्रन्थ । यह ग्रन्थ रसशास्त्र का व्यवस्थित एवं उपयोगी ग्रन्थ है। इसके रचयिता का नाम गोविन्द है जो ग्यारहवीं शताब्दी में विद्यमान था। इसमें अध्यायों की संज्ञा अवबोध है तथा उनकी संख्या १९ है। प्रथम अवबोध में रसप्रशंसा, द्वितीय में पारद के १८ संस्कारों के नाम तथा स्वेदन, मदन, मूच्र्छन, उत्थापन, पातन, रोधन, नियमन एवं दीपन आदि संस्कारों की विधि वर्णित है । तृतीय एवं चतुर्थ अवबोध में अभ्रकगान की प्रक्रिया एवं अभ्रक के भेद और अभ्रक सत्त्वपातन का विधान है। पांचवें में गर्भद्रुति की विधि, छठे में जागरण तथा सातवें में विडविधि वर्णित है। इसी प्रकार क्रमशः उन्नीसवें अवबोध तक रसरंजन, बीजविधान, वैक्रान्तादि से सस्वपातन, बोजनिर्वाहण, द्वन्दाधिकार, संकरबीजविधान, संकरबीजजारण, बाह्यद्रुति, सारण, क्रामण, वेधविधान तथा शरीर-शुद्धि के लिए रसायन सेवन करने वाले योगों का वर्णन है। इसमें पारद के सम्बन्ध में अत्यन्त व्यवस्थित ज्ञान उपलब्ध होते हैं। इसका प्रथम प्रकाशन आयुर्वेद ग्रन्थमाला से हुआ था जिसे श्री यादव जी त्रिकमजी आचार्य ने प्रकाशित कराया था। इसका हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखम्बा पिचा भवन से हुआ है।