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पवनदूत]
( २७४ )
[पाचरात्र
कृताम्बलिः ॥ ग्रन्थ के अन्त में कहा गया है-इत्थं पाराशरेणोक्तं होराशास्त्रचमत्कृतम् । नवं नवजनप्रीत्य विविधाध्याय संयुतम् । श्रेष्ठं जगद्वितायेदं मैत्रेयाय दिजन्मने। ततः प्रचरितं पृथ्ख्यामाहृतं सादरं जनैः ॥
आधारग्रन्थ-भारतीय ज्योतिष-डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री।
पवनदूत-इस सन्देशकाव्य के रचयिता मादिचन्द्र सूरि हैं। इनका समय १७ वीं शताब्दी के आसपास है । इनके गुरु का नाम शान्तिनाथ था। लेखक दिगम्बर चन सम्प्रदाय के भक्त थे । इन्होंने 'ज्ञानसूर्योदय' नामक नाटक भी लिखा था। इस नाटक का प्रकाशन जैन ग्रन्थावली बम्बई से हो चुका है । इस काव्य की रचना मेष. दूत के अनुकरण पर हुई है जिसकी कथा काल्पनिक है । इसमें कुल १०१ श्लोक हैं तथा मन्दाक्रान्ता छन्द प्रयुक्त हुआ है । इसमें कवि ने विजयनरेश नामक उज्जयिनी के एक राजा का वर्णन किया है जो अपनी पत्नी के पास पवन से सन्देश भेजता है। विजयनरेश की पत्नी तारा को अशनिवेग नामक विद्याधर हर कर ले जाता है। रानी के वियोग में दुःखित होकर राजा पवन से उसके पास सन्देश भेजता है। पवन उसकी प्रिया के पास जाकर उसका सन्देश देता है और अशनिवेग की सभा में जाकर तारा को उसके पति को समर्पित करने की प्रार्थना करता है। विद्याधर उसकी बात मान कर तारा को पवन के हाथ में दे देता और वह अपने पति के पास आ जाती है। इसका प्रकाशन (हिन्दी अनुवाद सहित ) हिन्दी जन-साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई से हो चुका है। इस काव्य की भाषा सरस एवं सरल है तथा उसमें सर्वत्र प्रवाह विद्यमान है। पवन को दूत बनाते समय कवि का कथन देखिए-पुत्रः सीतां दशमुखहृतां तावको दूरनापां तत्सन्देशैपित कुशलः जीवयामास वेगात् । तकि चित्रं त्वकमिह पदे संस्थितस्तां च पैञ्ये प्रायः कार्य लघुजनकृतं नाधिके चित्रकारी ॥ १३ ॥
आधारग्रन्थ-संस्कृत के सन्देशकाव्य-डॉ० रामकुमार आचार्य ।
पाश्चरात्र-आगम धैष्णवागम या वैष्णवतन्त्र को 'पाचरात्र' कहा जाता है। महाभारत में इसके लिए भागवतधर्म, पाचरात्र, ऐकान्तिक, नारायण, वासुदेव, वैष्णव तथा सास्वत आदि नाम आये हैं-नूनमेकान्तधर्मोऽयं श्रेष्ठो नारायणप्रियः ॥४॥ परस्पराशान्येतानि पांचरात्रं च कथ्यते । एष एकान्तिनां धर्मो नारायणपरात्मकः ॥ ८२॥ एष ते कथितो धर्मः सात्वतः कुरुनन्दनः ॥ ८४ ॥ महाभारत, शान्तिपवं अध्याय ३४८ ।
पाल्चरात्र की प्राचीनता के सम्बन्ध में अधिक प्रामाणिक साधन प्राप्त नहीं होते। इसका सर्वप्रथम विवेचन महाभारत के 'नारायणीयोपाख्यान' (शान्तिपर्व अध्याय. ३३५-३४६ ) में प्राप्त होता है। उसमें बताया गया है. कि नारदमुनि ने इस तन्त्र के तत्व को भारत के उत्तर में स्थित श्वेत द्वीप में जाकर नारायण ऋषि से प्राप्त किया था और आने पर इसका प्रचार किया। इस प्रकार नारायण ऋषि ही पाचरात्र के प्रवतंक सिद्ध होते हैं। पाचरात्र का संबंध वेद की एक शाखा 'एकायन' के साप स्थापित कर इसे वेद का ही एक अंश स्वीकार किया गया है । क-एष एकायनो वेदः प्रख्यातः सर्वतो मुवि । ईश्वरसंहिता १४३ ख-वेदमेकायनं नाम वेदानां