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काव्यशास्त्र]
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[काव्यशास्त्र
करते हैं-काव्यालंकार, काव्यालंकारसारसंग्रह, काव्यालंकारसूत्र एवं काव्यालंकार । आचार्य वामन ने अलंकार का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए इसे सौन्दर्य का वाचक बना दिया जिससे अलंकार शब्दार्थ का 'बाह्य शोभाधायक तत्त्व न रह कर उसका मूलभूत तत्त्व सिद्ध हुआ-काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात् । सौन्दर्यमलङ्कारः-काव्यालंकारसूत्र१।१२। भामह प्रभृति आचार्य अलंकारवादी थे, अतः उन्होंने अपने ग्रन्थों में अलंकार का प्राधान्य सिद्ध करते हुए इसी अभिधा का प्रयोग किया। वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आ० कुंतक ने भी 'वक्रोक्तिजीवित' को काव्यालंकार की अभिधा प्रदान की है
काव्यस्यायमलङ्कारः कोऽप्यपूर्वो विधीयते । वक्रोक्तिजीवित २२ कालान्तर में (मध्य युग में ) इस शास्त्र के लिए साहित्यशास्त्र का अभिधान प्रचलित हुआ। सर्वप्रथम राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में 'पञ्चमी साहित्यविद्या इति याबावरीयः' (पृ० ४ ) कह कर इसका प्रयोग किया और आगे चलकर रुय्यक एवं विश्वनाथ ने इस अभिधान को अधिक लोकप्रिय बनाया। रुय्यक ने 'साहित्यमीमांसा' एवं विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' की रचना कर इस शब्द का गौरव बढ़ा दिया। ग्यारहवीं शताब्दी में भोजराज ने काव्यशास्त्र को शास्त्र का रूप देकर इसके लिए काव्यशास्त्र का प्रयोग किया है और यह शब्द तभी से अधिक लोकप्रिय हो गया है। भोज ने ज्ञान के छह कारणों का उल्लेख किया है-काव्य, शास्त्र, इतिहास, काव्यशास्त्र, काव्येतिहास एवं शास्त्रेतिहास ।
काव्यं शास्त्रेतिहासौ च काव्यशास्त्रं तथैव च ।
काव्येतिहासः शास्त्रेतिहासस्तदपि षड्विधम् ॥ सरस्वतीकण्ठाभरण २।१३९ इस प्रकार काव्यशास्त्र के लिए अनेक नामों का प्रयोग होता रहा किन्तु अन्त में इसके लिए दो शब्द अधिक लोकप्रिय हुए-काव्यशास्त्र एवं साहित्यशास्त्र ।
भारतीय काव्यशास्त्र के मूल उत्स वेदों में प्राप्त होते हैं और इसकी प्राचीनता वैदिक वाङ्मय के समान ही सिद्ध होती है । 'ऋग्वेद' में उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास प्रभृति अलंकार तथा शृंगारादि रसों के भी पर्याप्त उदाहरण प्राप्त होते हैं। 'निरुक्त' में तो उपमालंकार का शास्त्रीय विवेचन भी किया गया है और उससे भी स्पष्ट रूप से इसका विवेचन पाणिनिकृत 'अष्टाध्यायी' में मिलता है। उपमानानि सामान्य वचनैः । अष्टाध्यायी २।१।५५ 'अष्टाध्यायी' में शिलालि एवं कृशाश्व द्वारा रचित नटसूत्रों का उल्लेख होने से ज्ञात होता है कि पाणिनि से पूर्व काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थों का (पराशर्यशिलाभिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः । अष्टाध्यायी, ४।३१७१०) निर्माण हो चुका था। 'निरुक्त' में वर्णित कर्मोपमा, भूतोपमा, अर्थोपमा, सिद्धोपमा आदि उपमा के प्रकार भी संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास को अधिक प्राचीन सिद्ध करते हैं । "वाल्मीकि रामायण' में नौ रसों का उल्लेख मिलता है और अलंकारों तथा अन्य काव्यशास्त्रीय तत्त्वों के प्रभूत उदाहरण प्राप्त होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि काव्यशास्त्र का निरूपण अत्यन्त प्राचीनकाल से, संभवतः ईसा से दो सहस्र पूर्व, हो चुका था किन्तु उस समय के ग्रन्थों की प्राप्ति नहीं होती। भरतकृत 'नाट्यशास्त्र' में भी अनेक 'आनुवंश्य' श्लोकों
६ सं० सा०