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महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य ]
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[महाप्रभु श्रीववभाचार्य
अद्वैतवादियों के अनुसार इन्हें सत्य नहीं माना जाता। ब्रह्म के तीन रूप हैं-आधिदैविक ( परब्रह्म), आध्यत्मिक ( अक्षरब्रह्म) एवं आधिभौतिक ( जगत् )। जगत् ब्रह्म रूप ही है । आविर्भाव की दशा में वह जगत् एवं तिरोभाव के रूप में ब्रह्म हो जाता है ।
इस प्रकार वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है । जगत् का आविर्भाव लीला मात्र है । भगवान् या श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दमय हैं। उनमें सत, चित् और आनन्द तीनों का योग है, पर जीव में सत् और चित् का आविर्भाव तथा आनन्द का तिरोभाव होता है और जगत् में केवल सत् रहता है, उसमें चित् । चेतनता) एवं आनन्द का अभावें होता है । अक्षर ब्रह्म में आनन्द का किंचित् मात्र तिरोधान होता है, पर परब्रह्म में आनन्द कीपरिपूर्णता होती है। उपर्युक्त दोनों ब्रह्मों की प्राप्ति के साधनों में भी भेद दिखाया गया है । अक्षरब्रह्म केवल विशुद्ध ज्ञान से ही प्राप्त होता है अर्थात् वह ज्ञानगम्य है, जब कि पुरुषोत्तम की प्राप्ति का एकमात्र लक्ष्य है अनन्या भक्ति । श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं जो अपनी शक्तियों को परिवेष्टित कर 'व्यापीवैकुण्ठ' में भक्तों के साथ नित्य लीला किया करते हैं । 'व्यापीवैकुण्ठ' वैकुण्ठ के ऊपर अवस्थित है और गोलोक इसी का एक अंश मात्र है।
जीव-रमण करने की इच्छा के उत्पन्न होने पर भगवान् आनन्द आदि गुणों का तिरोभाव कर जीव का रूप धारण करते हैं । इसमें केवल भगवान की इच्छा या लीला का ही प्राधान्य है, इसमें माया का हाथ नहीं होता। जीव में ऐश्वर्य, यश, श्री एवं ज्ञान का तिरोधान होता है जिससे उसमें क्रमशः दीनता, सर्वहीनता का अभाव होता है और वह समस्त आपत्तियों तथा देहारमबुद्धि का पात्र बना रहता है। जिस प्रकार अग्नि से स्फुलिंग निकलते हैं उसी प्रकार ब्रह्म से जीव का आविर्भाव होता है। जीव की अनेक श्रेणियां हैं-शुख, मुक्त तथा संसारी। आनन्दांश के तिरोधान न होने से अविद्या से सम्बद्ध होने के पूर्व जीव शुद्ध कहा जाता है। अविया से संसर्ग होने पर इसे संसारी कहते हैं । मुक्तदशा में आनन्दांश को प्रकट करते हुए जीव भगवान् के साथ अभेद स्थापित कर सच्चिदानन्द बन जाता है । जीव नित्य है।
जगत्-वल्लभमत से जगत् भी नित्य है और यह ईश्वर के सदंश से आविर्भूत होता है। ईश्वर की इच्छा से ही जगत् या सृष्टि का निर्माण होता है । वल्लभाचार्य ने जगत् या संसार में सूक्ष्म भेद उपस्थित किया है । भगवान् के सदंश से उत्पन्न होने वाले पदार्थ को जगत् तथा अविद्या के कारण जीव द्वारा कल्पित ममता स्वरूप पदार्थ को संसार कहते हैं जो मान के कारण स्वतः नष्ट हो जाता है। जगत् ब्रह्मरूप होता है, अतः इसका नाश कभी नहीं होता, पर अविचा रूप होने के कारण नष्ट हो जाता है।
पुष्टिमार्ग-आचार्य ववभ द्वारा प्रवर्तित भक्ति को पुष्टिमार्ग कहते हैं जिसका अर्थ है-अनुग्रह या भगवान की कृपा । अर्थात् जब तक भगवान की कृपा नहीं होगी तब तक भक्त के हृदय में भक्ति का स्फुरण नहीं होगा-पोषणे तदनुग्रहः । भागवत २॥१०॥ भवदनुग्रह को ही मुक्ति का साधन मानने के कारण इसे पुष्टिमार्ग कहते हैं। बहभमत