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उपनिषद्-दर्शन]
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[ उपनिषद्-दर्शन
सबसे पहला प्रयत्न है और निश्चय ही बहुत रोचक और महत्त्वपूर्ण है।' इंसाइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन एण्ड एथिक्स, खण्ड ८ पृ० ५९७ दर्शनशास्त्र की मूल समस्या का समाधान ही उपनिषदों का केन्द्रीय विषय है। इनका लक्ष्य सत्यान्वेषण है। 'केनोपनिषद्' में शिष्य पूछता है कि 'किसकी इच्छा से प्रेरित होकर मन अपने अभिलषित प्रयोजन की ओर आगे बढ़ता है ? किसकी आज्ञा से प्रथम प्राण बाहर आता है और किसकी इच्छा से हम वाणी बोलते हैं ? कौन-सा देव आँख या कान को प्रेरणा देता है ?'
उपनिषदों के दार्शनिक तत्त्व को अध्यात्मविद्या एवं नीतिशास्त्र दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। अध्यात्मविद्या के अन्तर्गत परमसत्ता, जगत् का स्वरूप एवं सृष्टि की समस्या का प्रतिपादन किया गया है तो नीतिशास्त्र में व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य, उसका आदर्श, कर्म का मुक्ति के साथ सम्बन्ध तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त विवेचित है।
आत्मतस्प-उपनिषदों में आत्मतत्त्व का विवेचन बड़ी सूक्ष्मता के साथ किया गया है । 'कठोपनिषद्' में, आत्मा की सत्ता इसी जीवन तक रहती है या जीवन के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है, का विशद विवेचन है। इसके उत्तर में [ यमराज नचिकेता को बतलाते हैं.] कहा गया है कि आत्मा नित्य है, वह न तो मरता है और न अवस्थादि कृत दोषों को प्राप्त करता है। [ कठोपनिषद् ३-४]'छान्दोग्यपनिषद्' में बतलाया गया है कि आत्मा पापरहित, अजर, अमर, शोक, भूखप्यास से विमुख, सत्यकाम एवं सत्यसंकल्प है। 'यह शरीरधर्मा है, मृत्यु के वश में है। इस पर भी वह अविनाशी, अशरीर आत्मा का निवासस्थान है। शरीर में रहते हुए, आत्मा प्रिय और अप्रिय पदार्थों से बंधा रहता है; जबतक शरीर से सम्बन्ध बना है, प्रिय और अप्रिय से छुटकारा नहीं होता। जब शरीर से सम्बन्ध समाप्त हो जाता है, तो प्रिय-अप्रिय का स्पर्श भी नहीं रहता।'
ब्रह्मतत्त्व-परमतत्व के स्वरूप का हल निकालने के लिए उपनिषदों में अत्यन्त सूक्ष्म विचार व्यक्त किये गये हैं।
यहां ब्रह्म के दो स्वरूपों का निरूपण किया गया है-सगुण एवं निर्गुण । निर्विशेष या निर्गुण ब्रह्म को परमतत्त्व तथा सगुण और सविशेष ब्रह्म को 'अपर' ब्रह्म कह कर दोनों में भेद स्थापित किया गया है। अपर ब्रह्म को शब्द ब्रह्म भी कहा जाता है । निर्विशेष ब्रह्म की निर्गुण, निरुपाधि तथा निर्विकल्प अभिधा दी गई है। उपनिषदों में विश्व-विवेचन एवं आत्म-विवेचन के आधार पर ब्रह्मतत्त्व का समाधान किया गया है। प्राकृतिक जगत् की सारी शक्तियों को यथार्थ रूप में ब्रह्म की ही शक्ति कहा गया है। 'निश्चय ही यह सब ब्रह्म है; यह ब्रह्म से उत्पन्न होता है, ब्रह्म में लीन होता है; उसी पर आश्रित है।' छान्दोग्य उपनिषद् ३।१४।१। इसमें ब्रह्म को भूमा कहा गया है। जहाँ सभी ज्ञान समाप्त हो जाय वही भूमा या महान् है। ब्रह्म सत्य तथा ज्ञानस्वरूप है। वह रसरूप है । रसरूप ब्रह्म को प्राप्त कर जीवात्मा आनन्दित होता है। ब्रह्म से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीवित रहते हैं तथा अन्त में उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं । ब्रह्म को अक्षर, अविनाशी एवं मूल तत्त्व कहा गया है। वह आनन्दरूप, अजर और