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माध्यमत ]
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[ माध्यमत
परमात्मा — माध्यमत में साक्षात् विष्णु ही परमात्मा हैं, जिनमें मनन्त गुणों का समावेश है। विष्णु ही उत्पत्ति, संहार, नियमन, ज्ञान, आवरण, बन्ध तथा मोक्ष के कर्ता हैं, और वे ही भगवान भी हैं । वे सर्वज्ञ हैं तथा जड़ प्रकृति और चेतन जीक से सदा विलक्षण भी । विष्णु परम तत्व हैं। वे शरीरी होकर भी नित्य एवं सर्वतन्त्र स्वतन्त्र तथा एक होते हुए भी नानारूपधारी हैं । परमात्मा की शक्ति लक्ष्मी हैं । वे परमात्मा के अधीन रहती हैं तथा उनसे भिन्न भी हैं । परमात्मा के सदृश वे नित्यमुक्ता तथा नाना प्रकार का रूप धारण करनेवाली हैं । भगवान् की भार्या हैं, तथा भगवान् से गुण में न्यून हैं । भगवान् की भाँति लक्ष्मी भी नित्यमुक्ता हैं, तथा दिव्य विग्रहधारी होने के कारण अक्षरा हैं ।
जीव-जीव भगवान् के अनुचर तथा अल्पज्ञान एवं अल्पशक्ति से युक्त हैं । वे विष्णु के अधीन होकर ही सभी कार्य सम्पादित करते हैं। जीव अज्ञान, मोह तथा अनेक प्रकार के दोष से युक्त हैं, और वे संसारशील हैं। उनके तीन प्रकार हैं,—मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी तथा तमोयोग । मुक्तियोग्य जीवों के अन्तगंत देव, ऋषि, पितृ, चक्रवर्ती तथा उत्तम रूप मनुष्य आते हैं, और वे मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। नित्य संसारी जीव सदैव सुख-दुःख से युक्त एवं अपने कर्मानुसार स्वर्ग, नरक या भूलोक में विचरण कर ऊंच-नीच गति प्राप्त करते हैं । वे मध्यम मनुष्य की श्रेणी में आते हैं । तमोयोग व्यक्ति को कभी मुक्ति नहीं प्राप्त होती । इस श्रेणी में दैत्य, राक्षस एवं अधम श्रेणी के मनुष्य आते हैं ।
जगत्-- इस मत में जगत् को सत्य माना गया है । भगवान् के द्वारा निर्मित जगत् असत्य नहीं हो सकता । माध्वमत में वास्तविक सुख की अनुभूति को मुक्ति कहा जाता है । इस स्थिति में दुःख के क्षय के साथ-ही-साथ परमानन्द का उदय होता है । मोक्ष चार प्रकार का होता है-कर्म, क्षय, उत्क्रान्ति, अचिरादि मागं तथा भोग । भोग के भी चार प्रकार होते हैं- सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य । इनमें सायुज्य मुक्ति सर्वश्रेष्ठ होती है; क्योंकि इस स्थिति में भक्त भगवान् में प्रवेश कर उनके शरीर से ही आनन्द प्राप्त करता है । अमला या मलरहित भक्ति ही माध्यमत के अनुसार मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है । हैतुकी भक्ति या किसी कारण विशेष से की गई भक्ति निकृष्ट होती है, एवं अहैतुकी भक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।
माध्यमत अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया के रूप में द्वैतवाद की स्थापना करता है । इसके अनुसार एकमात्र ब्रह्म हो सत नहीं है। इसमें पांच नित्य भेदों की स्थापना की गयी है - ईश्वर का जीव से नित्यभेद, ईश्वर का जड़ पदार्थ से नित्यभेद, एक जीब का अन्य जीव के साथ नित्यभेद, एक जड़ पदार्थ का दूसरे जड़ पदार्थ के साथ नित्यभेद । माध्यमत में प्रमाण तीन माने गए हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द, तथा इन्हीं के आधार पर समग्र प्रमेयों की सिद्धि मानी गयी है ।
बाधारग्रन्थ - १. भागवत सम्प्रदाय – पं० बलदेव उपाध्याय । २. भारतीयदर्शनपं० बलदेव उपाध्याय ।