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काव्यशास्त्र
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[काव्यशास्त्र
६६ = ३९९ पुस्तक के अन्त में वर्णित विषयों एवं उनसे सम्बद्ध श्लोकों का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है।
षष्ट्या शरीरं निर्णीतं शतषष्टयात्वलकृतिः । पचाशता दोषदृष्टिः सप्तत्या न्यायनिर्णयः ।। पष्ट्या शब्दस्य शुद्धिः स्यादित्येवं वस्तुपन्चकम् ।
उक्तं षभिः परिच्छेदै महेन क्रमेण वः ।। काव्यालकार ६४६५,६६ ॥ इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद आ० देवेन्द्रनाथ शर्मा ने किया है जो राष्ट्रभाषापरिपद् पटना से प्रकाशित है। इसके निम्नांकित संस्करण प्राप्त हैं-१. श्री के० पी० त्रिवेदी का संस्करण-'प्रतापरुद्रयशोभूषण' के परिशिष्ट के रूप में मुद्रित 'काव्यालंकार' ( बम्बई संस्कृत एण्ड प्राकृत सीरीज १९०९ ई०)। २-श्री नागनाथ शास्त्रीकृत आंग्ल अनुवाद सहित ( काव्यालंकार ) तंजोर से ११२७ ई० में प्रकाशित । ३-काव्यालंकारसं० २० वटुकनाथ शर्मा एवं पं० बलदेव उपाध्याय, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी १९२७ ई० । ४-श्री शैलताताचार्य द्वारा रचित संस्कृत वृत्ति के साथ प्रकाशित काव्यालंकार, श्रीनिवास प्रेस, तिरुवदी, १९३४ ई०। ५-श्री शंकरराम शास्त्री द्वारा संपादित काव्यालंकार, श्री बालमनोरमा प्रेस, मद्रास १९५६ ई० ।
आधारग्रन्थ-क. आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा द्वारा संपादित काव्यालंकार, प्रकाशन काल २.१९ वि० सं० । ख. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-डॉ. पा० वा० गुणे (हिन्दी अनुवाद ) मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, १९६६ ।।
काव्यशास्त्र-जिस शास्त्र के द्वारा काव्य के सौन्दर्य की परख की जाती है उसे काव्यशास्त्र कहते हैं। इसमें सामान्य रूप से काव्यानुशीलन के सिद्धान्त का वर्णन होता है जिसके आधार पर काव्य या साहित्य की मीमांसा की जाती है। संस्कृत में इस शास्त्र के लिए कई नाम प्रयुक्त हुए हैं-अलंकारशास्त्र, साहित्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, काव्यालंकार, साहित्यविद्या एवं क्रियाकल्प । इनमें सर्वाधिक प्राचीन नाम 'क्रियाकल्प' है। इसका उल्लेख वात्स्यायनकृत कामसूत्र में ६४ कलाओं के अन्तर्गत किया गया है जो 'काव्य क्रियाकल्प' का संक्षिप्त रूप है। 'ललितविस्तर' नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी इस शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के ही अर्थ में हुआ है और उसके टीकाकार जयमङ्गलार्क के अनुसार इसका अर्थ है--क्रियाकल्प इति काव्य करणविधि काव्यालंकार इत्यर्थ.। इस प्रकार 'क्रियाकल्प' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के ही अर्थ हुआ प्रतीत होता है। 'वाल्मीकि रामायण' में भी यह शब्द इसी अर्थ का द्योतक है। लव-कुश का संगीत सुनने के लिए रामचन्द्र की सभा में उपस्थित व्यक्तियों में वैयाकरण, नैगम, स्वरज्ञ एवं गान्धर्व आदि विद्याओं के विशेषज्ञों के अतिरिक्त कियाकल्प एवं काव्यविद् का भी उल्लेख है
क्रियाकल्पविदश्व तथा काव्यविदो जनान् ।। उत्तरकाण्ड ९४-७३ आलोचनाशास्त्र के लिए अन्य प्राचीन नाम 'अलंकारशास्त्र' मिलता है। यह नाम उस युग का है जब काव्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व अलंकार माना जाता था। भामह, उद्भट, वामन, रुद्रट प्रभृति आचार्यों के ग्रन्थों के नाम इसी तथ्य की पुष्टि