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मृच्छकटिक ]
( ४२३ )
[ मृच्छकटिक
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अभिनय सम्बन्धी कतिपय
विचार है कि यह रूपक अत्यन्त विस्तृत है तथा इसमें दो नाटकों की सामग्री है । उसके अनुसार राजनैतिक क्रान्ति को कथा के कारण अंक दो से पांच तक मुख्य कथा दब गयी है और प्रेक्षकों को पता नहीं चलता कि वे वसन्तसेना और चारुदत्त की प्रणय कथा का अवलोकन कर रहे हैं। पर वस्तुतः यह बात नहीं है । इसकी प्रासंगिक कथा मुख्य घटना से पृथक् न होकर उसी अनुस्यूत दिखलाई पड़ती है और क्रान्ति की घटना मुख्य कथा को फल की ओर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण योग दिखाती है | इसके सभी मुख्य पात्र मुख्य घटना से सम्बद्ध हैं और वे फलागम में सहायक होते हैं । आर्य का राज्यारोहण चारुदत्त के अनुकूल पड़ता है और राजाज्ञा से ही वह वसन्तसेना को वधू के रूप में ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रासंगिक कथा मुख्य कथा पर शासन न कर उसके विकास में गति प्रदान करती है । कवि ने तीनों कथाओं को बड़ी कुशलता के साथ परस्पर संश्लिष्ट कर अपने प्रकरण को उत्तम बनाया है । इन सारी विशिष्टताओं के बाद भी 'मृच्छकटिक' में दोष दिखलाई पड़ते हैं । चतुर्थ अंक में वसन्तसेना के भवन अधिक विस्तृत एवं दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेनेवाला है भी नाटकीय दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखता, और वह इतना विस्तृत है कि दर्शक ऊबने लगते हैं । काव्य की दृष्टि से अवश्य ही इस वर्णन का महत्त्व है पर रङ्गमंच के विचार से यह ऊव पैदा करनेवाला है । किन्तु ये दोष बहुत अल्प हैं और 'मृच्छकटिक' का महत्त्व इनसे कम नहीं होता । पात्र एवं चरित्र चित्रण - 'मृच्छकटिक' में अनेक प्रकार के पात्रों का शील-निरूपण किया गया है । कवि ने समाज के ऐसे चरित्रों का भी चरित्रांकन किया है जो हेय एवं उपेक्षित हैं । चोर, द्यूतकार, चेट, विट आदि इसमें महत्वपूर्ण भूमिका उपस्थित करते हैं । इन पात्रों के व्यक्तित्व की निजी बिशिष्टताएँ हैं तथा ऐसे पात्र अन्यान्य संस्कृत नाटकों में नहीं दिखाई पड़ते। इन पात्रों के अतिरिक्त धनी वेश्या, दरिद्र प्रेमी, राज-पदाधिकारी, न्यायाधीस, अत्याचारी राजा, विद्वान् तथा राजा का बिगड़ा हुआ साला का भी इसमें वर्णन किया गया है ।
एवं सात अगिन का वर्णन
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पाँचवें अंक का वर्षा वर्णन
चारुदल - बारुद इस नाटक का नायक और जन्मना ब्राह्मण है, किन्तु वह व्यवहार के व्यापारी है। प्रस्तावना में सूत्रधार ने इसे 'अवन्तिपुर्यां द्विजसागंवाहः' का स्पट्टोकरण किया है। दशम में पादत मे स्वयं अपने को ग्रुपने पुत्र को ब (पूर्वज अत्यधिक
आहा कहा है और दाम के
'देता है- 'मोतिकमथे किन्तु यह समय उसको दाता
का
गुण हैं जिनमें
विषम् के फेर से दरिद्र हो गया है भी है। इसके चरित्र कति मह उज्जयिनी के नामरिकों का अभाव बना र दारता तथा परोपकार आदि । इसकी इसका सिकार भी करता है-"दीनानां कल्पवृक्षः स्वगुणफलनतः सज्जनानां कुटुम्बी, चादर्श शिक्षितानां सुचरित निकणः शीलबेलासमुद्रः । सत्कर्त्ता नावमन्ता: पुरुष गुणनिधिदक्षिणोदारसस्वो, होकः श्लाघ्य स जीवत्यधिकगुणतया चोच्छ्बसन्तीव चान्ये ॥" "जो दरिद्र मनुष्यों की बांछित पूर्ति के लिए कल्पतरु