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बोद्ध-दर्शन ]
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[ बीय-दर्शन
का अन्त हो जाने पर दुःख का भी अन्त निश्चित है । दुःखनिरोध या दुःख के नाश के साधन को ही निर्वाण कहते हैं । इसकी प्राप्ति जीवन के रहते भी संभव है । मोक्ष ही निर्वाण है और जो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है उसे अहंत कहते हैं । निर्वाण के द्वारा पुनर्जन्म का अन्त हो जाता है और उसके साथ-ही-साथ दुःख से भी मुक्ति मिल जाती है। निर्वाण की अवस्था पूर्ण शान्ति, स्थिरता एवं तृष्णा विहीनता की है। चतुर्थ आर्यसत्य है दुःख-निरोध-मार्ग। जिन कारणों से दुःख उत्पन्न होता है यदि उन कारणों का ही अन्त कर दिया जाय तो उस उपाय या साधन को निर्वाण का मार्ग कहते हैं । बुद्ध ने ऐसे मार्गों की संख्या आठ मानी है । सम्यक् दृष्टि-वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर ध्यान देना । सम्यक् संकल्प - दृढ़ निश्चय पर अटल रहना । सम्यक् वाक् – सत्यभाषण तथा मिथ्या का त्याग । सम्यक् कर्मान्त - अहिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रियसंयम । सम्यक् आजीव – न्यायपूर्ण जीविका चलाना । सम्यक् व्यायाम – सद्कर्म करने के लिए सन्तत उद्योग करना । सम्यक् स्मृति - लोभ आदि चित्तसंताप से दूर रहना । सम्यक् समाधि - रागद्वेष से रहित चित्त की एकाग्रता ।
बुद्ध के दार्शनिक विचार - बुद्ध के धर्मोपदेश तीन दार्शनिक विचारों पर अवलम्बित हैं- प्रतीत्यसमुत्पाद, कर्मक्षणिकवाद तथा आत्मा का अनस्तित्व । प्रतीत्यसमुत्पाद - प्रतीत्य का अर्थ है 'किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर समुत्पाद या अन्य वस्तु की उत्पत्ति' । इसे कारणवाद भी कहा जाता है । बाह्य अथवा मानस संसार की जितनी भी घटनाएं होती हैं, अवश्य होता है । यह नियम स्वतः परिचालित होता है इसका के द्वारा नहीं होता । इसके अनुसार वस्तुएँ नित्य नहीं हैं, किन्तु उनके अस्तित्व पर सन्देह नहीं किया जा सकता। उनकी उत्पत्ति अन्य पदार्थों से होती है पर 'उनका पूर्ण विनाश नहीं होता और उनका कुछ कार्य या परिणाम अवश्य रह जाता है' । प्रतीत्यसमुत्पाद मध्यम मागं है जो न तो पूर्ण नित्यवाद है और न पूर्ण विनाशवाद । इस दृष्टि से शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद दोनों ही एकांगी हैं ।
कर्म - प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वारा कर्मवाद की प्रतिष्ठा होती है। इसके अनुसार मनुष्य का वर्तमान जीवन पूर्व जीवन के ही कर्मों का परिणाम है तथा वर्तमान जीवन का भावी जीवन के साथ संबंध लगा हुआ है । कर्मवाद यह बतलाता है कि वर्तमान जीवन में जो हम कर्म करेंगे उसका फल भविष्य के जीवन में प्राप्त होगा । क्षणिकवाद - बुद्ध के मत से संसार की सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील एवं नाशवान् हैं। किसी कारण से ही कोई वस्तु उत्पन्न होती है, अतः कारण के नष्ट होने पर उस वस्तु का भी अन्त हो जाता है। बौद्धदर्शन का क्षणिकवाद अनित्यवाद का ही रूप है । क्षणिकवाद का अर्थ केवल यह नहीं है कि कोई वस्तु नित्य या शाश्वत नहीं है, किन्तु इसके अतिरिक्त इसका अर्थ यह भी है कि किसी भी वस्तु का अस्तित्व कुछ काल तक भी नहीं रहता, बल्कि एक क्षण के लिए ही रहता है।' अनात्मवाद - बौद्धदर्शन में आत्मा का अस्तित्व मान्य नहीं है, अतः इसे अनात्मवादी दर्शन कहते हैं। यहाँ पर
इस सिद्धान्त के अनुसार उनका कुछ-न-कुछ कारण संचालन किसी चेतनशक्ति