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महाभाष्य]
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[महाभाष्य
सुहृद आदि विशेषण प्रयुक्त किये हैं। उनके अनुसार पाणिनि का एक भी कथन अशुद्ध नहीं है । कथं पुनरिदं भगवतः पाणिनेराचार्यस्य लक्षणं प्रवृत्तम्-आ० १ पृ. १३ ।
'महाभाष्य' में संभाषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है तथा विवेचन के मध्य में 'किंवक्तव्यमेतत् , 'कथं तहि', 'अस्ति प्रयोजनम्' आदि संवादात्मक वाक्यों का समावेश कर विषय को रोचक बनाकर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। उसकी व्याख्यान-पद्धति के तीन तत्व हैं-सूत्र का प्रयोजन-निर्देश, पदों का अर्थ करते हुए सूत्रार्थ निश्चित करना एवं 'सूत्र की व्याप्ति बढ़ाकर या कम कर के सूत्रार्थ का नियन्त्रण करना' । महाभाष्य का उद्देश्य ऐसा अर्थ करना था जो पाणिनि के अनुकूल या इष्टसाधक हो। अतः जहाँ कहीं भी सूत्र के द्वारा यह कार्य सम्पन्न होता न दिखाई पड़ा वहां पर या तो सूत्र का योग-विभाग किया गया है या पूर्व प्रतिषेध को ही स्वीकार कर लिया गया है । पतजलि ने सूत्रकार का समर्थन करने के लिए वात्तिककार के विचारों का खण्डन भी किया है। पर आवश्यकतानुसार उन्होंने पाणिनि के दोष-दर्शन भी किये हैं, किन्तु ऐसे स्थल केवल दो ही हैं-- 'एतदेकमाचार्यस्य मङ्गलार्थमृश्यताम्' तथा 'प्रमादकृतमेतदाचार्यस्य शक्यमकर्तुम् । 'महाभाष्य' में स्थान-स्थान पर सहज, चटुल, तिक्त एवं कड़वी शैली का भी प्रयोग है। व्यंग्यमयी कटाक्षपूर्ण शैली के उदाहरण तो इसमें भरे पड़े हैं। क-किं पुनरनेन वर्थेन ? किं न महता कष्टेन नित्यशब्द एवोपात्तो यस्मिन्नुपादीयमाने सन्देहः स्यात् । ख-आहोपुरुषिका मात्रं तु भवानाह । पतन्जलि के कतिपय न्यायों की भी उद्भावना की है-कूपखानकन्याय, कुम्भीधान्यन्याय, काकतालीयन्याय, प्रासादवासिन्यन्यास ।।
'महाभाष्य' में व्याकरण के मौलिक एवं महनीय सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया गया है। पतजलि के अनुसार शन्द एवं अर्थ का सम्बन्ध नित्य है तथा वे यह भी स्वीकार करते हैं कि शब्दों में स्वाभाविक रूप से ही अर्थाभिधान की शक्ति विद्यमान रहती है। उन्होंने पद के चार अर्थ स्वीकार किये-गुण, क्रिया, आकृति तथा द्रव्य । आकृति को जाति कहा जाता है जो द्रव्य के छिन्न-भिन्न हो जाने पर भी स्वयं छिन्न-भिन्न नहीं होती। आकृति के बदल जाने पर भी द्रव्य वही रहा करता है तथा गुण और क्रिया द्रव्य में ही विद्यमान रहते हैं। पतन्जलि के मतानुसार शन्द जाति एवं व्यक्ति दोनों का ही निर्देशक है, केवल जाति या केवल व्यक्ति का नहीं। इसी प्रकार उन्होंने शब्दों के प्रयोग, वाक्य में उनका स्थान, सामध्यं तथा शब्दों के नियत विषयत्वादि के सम्बन्ध में भी मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने बताया कि लिंग का अनुशासन व्याकरण द्वारा नही होता, बल्कि वह लोकाधित होता है । व्याकरण का कार्य है व्यवस्था करना। वह पदों का संस्कार कर उन्हें प्रयोग के योग्य बनाता है। लोक को प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है । 'महाभाष्य' में लोक-विज्ञान तथा लोक-व्यवहार के आधार पर मौलिक सिदान्त की स्थापना की गयी है तथा व्याकरण को दर्शन का स्वरूप प्रदान किया गया है । इसमें स्फोटवाद की मीमांसा कर शब्द को ब्रह्म का रूप मान लिया गया है । इसके प्रारम्भ में ही यह विचार व्यक्त किया गया है कि शब्द उस ध्वनि को कहते हैं जिसके व्यवहार करने में पदार्थ का ज्ञान