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नारदस्मृति]
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[ नारदस्मृति
तक पूर्व भाग में) प्रस्तुत की गयी है। इसके आधार पर यह सर्वाधिक अर्वाचीन पुराण सिद्ध होता है। पर, यह विवरण अवश्य ही अर्वाचीन होगा और परवर्ती प्रक्षेप भी। 'विष्णुपुराण' में नारदपुराण को रचनाक्रम से ६ ठा स्थान प्रदान किया गया है, जिससे इसकी सर्वाधिक अर्वाचीनता संदिग्ध हो जाती है। प्रो० एच० एच० विल्सन के अनुसार इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी है। उन्होंने इसे महापुराण नहीं माना है क्योंकि इसमें कुल तीन हजार श्लोक हैं। उनके अनुसार इसमें पुराणों के पंचलक्षणों का अभाव है और यह विष्णुभक्ति-प्रतिपादक एक साम्प्रदायिक ग्रन्थ है । पर, यह तथ्य निराधार है। 'नारदपुराण' न तो इतना अर्वाचीन है और न 'पुराणपंचलक्षणम्' से विरहित ही । अल्बेरूनी ने इसका उल्लेख किया है जिसका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। इसमें अनेक विषयों का निरूपण है जिनमें मुख्य हैं-मोक्ष, धर्म, नक्षत्र एवं कल्पनिरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिदि, देवताओं के मन्त्र, अनुष्ठानविधि, अष्टादशपुराण-विषयानुक्रमणिका, वर्णाश्रमधर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित, सांसारिक कष्ट एवं भक्ति द्वारा मोक्ष के सुख । इसमें विष्णु-भक्ति को ही मोक्ष का एकमात्र साधन माना गया है तथा अनेक अध्यायों में विष्णु, राम, हनुमान, कृष्ण, काली और महेश के मन्त्रों का सविध निरूपण है। सूत-शौनक-संवाद के रूप में इस पुराण की रचना हुई है। इसके प्रारम्भ में सृष्टि का संक्षेप में वर्णन किया गया है तदनन्तर नाना प्रकार की धार्मिक कथायें वर्णित हैं। पुराणों में 'नारदीयपुराण' के अतिरिक्त एक 'नारदीय-उपपुराण' भी उपलब्ध होता है जिसमें ३८ अध्याय एवं ३६०० श्लोक हैं । यह वैष्णव मत का प्रचारक एवं विशुद्ध साम्प्रदायिक ग्रन्थ है जिसमें पुराण के लक्षण नहीं मिलते हैं। कतिपय विद्वानों ने इसी ग्रन्थ को 'नारदपुराण' मान लिया है । इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता से हुआ है।
आधारप्रन्थ-१. नारदपुराण (हिन्दी अनुवाद)-गीता प्रेस, गोरखपुर २. नारदपुराण ( हिन्दी अनुवाद)-अनु० रामचन्द्र शर्मा, मुरादाबाद ३. प्राचीन भारतीय साहित्य भाग १, खण्ड २-(हिन्दी अनुवाद) विन्टरनित्स ४. पुराणतत्त्वमीमांसाश्री कृष्णमणि त्रिपाठी ५. पुराण-विमर्श-पं० बलदेव उपाध्याय ६. पुराणम्-खण्ड ५, १९६३ ७. विष्णुपुराण-(संपादक ) एच० एच० विल्सन ।
नारदस्मृति-इसके रचयिता नारद हैं जिन्हें विश्वरूप ने प्रसिद्ध दस धर्मशास्त्रकारों में से एक माना है । इसके लघु एवं बृहद् दो संस्करण उपलब्ध हैं जिनका सम्पादन डॉ. जॉली ने किया है । 'नारदस्मृति' में १०२८ श्लोक हैं। इसके प्रारम्भिक तीन अध्यायों में न्याय सम्बन्धी विधि वणित है। तत्पश्चात् ऋण-दान, उपनिधि ( जमा, बन्धक ) सम्भूयसमुत्थान ( सहकारिता ), दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत-अशुश्रूषा (नौकर के ठेके का तोड़ना), वेतनस्यअनपाकर्म ( वेतन न देना ), अस्वामिविक्रय, विक्रीया सम्प्रदान विक्री के उपरान्त न छुड़ाना), क्रीतानुशय (खरीदगी का सण्डन ), समयस्यानपाकर्म, (निगम, श्रेणी धादि की परम्पराओं का विरोध), सीमावन्ध, सी पुंसयोग, दायभाग (बंटवारा तया बसीयत), साहस (कैती), वाक्या पाल्य (मानहानि तवा
१६ सं० सा०