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रत्नावली ]
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[ रत्नावली
कथन में कहीं भी उसका अधिकार-मद प्रकट नहीं होता और वह सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । अन्तःपुर की दासी सुसंगता के प्रति उसका कथन कितना शिष्ट है - सुसङ्गते ! स्वागतम्, इहोपविश्यताम् । यद्यपि 'रत्नावली' में उदयन प्रधानरूप से विलासी एवं प्रेमी के ही रूप में चित्रित है तथापि कतिपय अवसर पर उसकी राजनैतिक पटुता एवं वीरता के भी दर्शन होते हैं । वह अपने वीर बैरी कोशलपति की मृत्यु का समाचार सुनकर उसकी वीरता की प्रशंसा किये बिना नहीं रहता - " साधु कोशलपते साधु । मृत्युरपि ते श्लाघ्यो यस्य शत्रवेऽप्येवं पुरुषकारं वर्णयति ।" "धन्य हो, कोशलपति तुम धन्य हो, तुम्हारी मृत्यु भी प्रशंसनीय है, जिसके शत्रु भी इस प्रकार तुम्हारी वीरता की सराहना करते हैं ।" प्रणय-लीला के मधुर क्षणों तथा विरह-वेदना के पीड़ामय दिवसों में भी वह राज्य की समस्याओं से विरत नहीं रहता। विजयवर्मा से कोशल का समाचार सोत्साह सुनना तथा अपने सेनापति रुमण्वान् की रणचातुरी एवं शत्रु-विजय के लिए उसे साधुवाद देने में उसकी राजनीतिक पटुता झलकती है । राजा की आज्ञा के बिना सागरिका के लाने के प्रयत्न में यौगन्धरायण भयभीत होता है, पर राजा के स्वगत कथन से ज्ञात होता है कि वह राजनीति से उदासीन नहीं रहता - यौगन्धरायणेन न्यस्ता ? कथमसी मामनिवेद्य किंचित्करिष्यति ।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि हर्ष ने अत्यन्त पटुता के साथ उदयन के प्रेमी एवं राजतीतिज्ञ उभय रूपों का चित्रण किया है । रत्नावली - सिंहलेश्वर-सुता रत्नावली इस नाटिका की नायिका है । उसी के नाम पर इस नाटिका का नामकरण किया गया है । सागर में निमज्जित होकर बच जाने के कारण उसका नाम सागरिका रखा गया है । वह यौगन्धरावण द्वारा लाई जाकर अन्तःपुर में रानी वासवदत्ता की दासी के रूप में रखी जाती है । नाटिका के अन्तिम अंश को छोड़कर वह सर्वत्र सागरिका के ही नाम से अभिहित हुई है । वह असाधारण सुन्दरी थी, इसीलिए रानी सदा उसे राजा की दृष्टि से बचाती रही कि कहीं राजा इस पर आकृष्ट न हो जाय । वह मुग्धा नायिका के रूप में चित्रित हुई है ।
उदयन के प्रथम दर्शन से ही उसकी जो स्थिति होती है उससे उसके मुग्धत्व की व्यंजना होती है । वह अपने मन में कहती है कि 'इन्हें देखकर अत्यन्त लज्जा के कारण मैं एक पग भी नहीं चल सकती' । सुसंगता द्वारा चित्रित उसके चित्र को देखकर राजा ने जो उद्गार व्यक्त किये हैं, उनसे उसके अप्रतिम सौन्दयं की अभिव्यक्ति होती है । "शस्तु पृथुरीकृता जितनिजाब्जपत्रत्विषश्चतुभिरपि साधु साध्विति मुखैः समं व्याहृतम् । शिरांसि चलितानि विस्मयवशाद् ध्रुवं वेधसा विधाय ललनां जगत्त्रयललामभूतामिमाम् । २।१६ । 'इस त्रिलोक सुन्दरी रमणी को बना चुकने पर ब्रह्मा भी आंखें फाड़ कर देखने लगे होंगे उनके चारों मुखों से एक साथ साधुवाद निकला होगा, और विस्मय से निश्चय ही उनके शिर हिलने लगे होंगे ।'
रत्नावली अत्यन्त भावुक नारी ज्ञात होती है । राजा को देखते ही, प्रथम दर्शन में ही वह उन पर अनुरक्त हो जाती है । यह जान कर भी कि रानी की दासी होते हुए उसका राजा से प्रेम करना कितना खतरनाक है, अपने ऊपर नियंत्रण नहीं करती,