________________
रुद्रट]
। ४७८ )
न्यायपन्चानन
कवि ने महाकाव्य की रचना की है तथा विविध छन्दों का प्रयोग किया है। इसमें कुण्डिनपुर नरेश राजा भीष्मक का वर्णन, रुक्मिणी जन्म, नारद जी का कुण्डिनपुर में जाना, रुक्मिणी के पूर्वराग का वर्णन, कुण्डिनपुर में शिशुपाल का जाना, रुक्मिणी का कृष्ण के पास दूतसम्प्रेषण, श्रीकृष्ण की कुण्डिनपुर यात्रा एवं रुक्मिणी का हरण करना आदि घटनाओं का वर्णन है। इस महाकाव्य में कुल २१ सर्ग हैं तथा वस्तुव्यजना के अन्तर्गत समुद्र, प्रभात एवं षड्ऋतुओं का मनोरम वर्णन किया गया है। प्रभात वर्णन का एक चित्र देखें-यामेष्वथ त्रिषु गतेषु निशीथिनी सा, निष्पन्दनीरवतराध्वनिताक्रमेण । निद्राऽलसेव रमणी रमणीयवाचां, वाचां भरेण रणिताऽभरणा बभूव ।। १३।१।
रुद्रट-काव्यशास्त्र के आचार्य । इनका समय नवम शताब्दी का आरम्भिक काल है। इन्होंने 'काव्यालंकार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की है (दे० काव्यालंकार )। इनके जीवन के सम्बन्ध में अधिक सामग्री प्राप्त नहीं होती। नाम के आधार पर इनका काश्मीरी होना निश्चित होता है। 'काव्यलंकार' के प्रारम्भ एवं अन्त में गणेश-गौरी तथा भवानी, मुरारि एवं गजानन की वन्दना करने के कारण ये शैव माने गए हैं । टीकाकार नमिसाभु के अनुसार इनका अन्य नाम शतानन्द था और ये वामुकभट्ट के पुत्र थे । शतानन्द पराख्येन भट्टवामुकसूनुना । साधितं रुद्रटेनेदं सामाजाधीमता हितम् ॥ काव्यालंकार ४१२-१४ की टीका। इनके पिता सामवेदी थे। रुद्रट ने भामह, दण्डी, उद्भट की अपेक्षा अलंकारों का अधिक व्यवस्थित विवेचन किया है और कतिपय नवीन अलंकारों का भी निरूपण किया है। अतः ये उपयुक्त आचार्यों से परवर्ती थे। इनके मत को दशमी शताब्दी के आचार्यों-राजशेखर, प्रतिहारेन्दुराज, धनिक एवं अभिनवगुप्त प्रभृति–ने उद्धृत किया है, अतः ये उनके पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस प्रकार इनका समय नवम शतक का पूर्वार्ट उपयुक्त जान पड़ता है। रुद्रट ने काव्यलक्षण, भेद, शब्दशक्ति, वृति, दोष, अलंकार, रस, नायकनायिका भेद का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और अनेक नवीन तथ्य प्रकट किये हैं। इन्होंने 'प्रेयान्' नामक दशम रस की उद्भावना की है और रस के बिना काव्य को निष्प्राण एवं रम्यताविहीन मान कर काव्य में उसका ( रस का) महत्त्व स्थापित किया है। भरत के बाद रुद्रट रससिद्धान्त के प्रवल समर्थक सिद्ध होते हैं। काव्यालंकार १६ अध्यायों का बृहत् काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है जिसमें सभी प्रमुख विषयों का निरूपण है । इसमें अलंकारों के चार वैज्ञानिक वर्ग बनाये गए हैं और वास्तव, बोपम्य, अतिशय तथा श्लेष के रूप में उनका विभाजन किया है। __ आधारग्रन्थ-१. भारतीय काव्यशास्त्र भाग १-आ० . बलदेव उपाध्याय । २. काव्यालंकार की भूमिका (हिन्दी भाष्य ) डॉ. सत्यदेव चौधरी।
रुद्ध न्यायपश्चानन-ये नवद्वीपनिवासी काशीनाथ विद्यानिवास के पुत्र थे। इनके पितामह का नाम रत्नाकर विद्यावाचस्पति था। ये सुप्रसिद्ध नैयायिक एवं बहुप्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। इनका समय १७ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। श्रीपञ्चानन द्वारा रचित प्रन्यों की संख्या ३९ है। अधिकरणचन्द्रिका, कारक