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युधिष्ठिरविजय]
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[यशस्तिलक चम्पू
व्याकरणम्, उणादिकोष, माध्यन्दिन पदपाठ । सम्प्रति 'वेदवाणी' नामक मासिक पत्रिका के सम्पादक।
युधिष्ठिरविजय-(महाकाव्य )--इसके रचयिता वासुदेव कवि हैं। वे केरल निवासी थे। उन्होंने 'त्रिपुरदहन' तथा 'शोरिकोदय' नामक काव्यों का भी निर्माण किया था। 'युधिष्ठिरविजय' यमक काव्य है । इसके यमक क्लिष्ट न होकर सरल एवं प्रसन्न हैं । यह महाकाव्य आठ उच्छ्वासों में है। इसमें महाभारत की कथा संक्षेप में कही गयी है। इस पर काश्मीग्वासी राजानक रत्नकण्ठ की टोका प्रकाशित हो चुकी है । टीका का समय १६७१ ई० है। पथिकजनानां कुरवान् कुर्वन् कुरवो बभूव नवांकुरवान् । प्रेक्ष्य रुचं चूतस्य स्तषकेषु पिकश्चकार चन्चू तस्य ॥ २।४४ ।
यशस्तिलक चम्प-इसके रचयिता सोमदेव सार हैं। वे राष्ट्रकूट के राजा कृष्ण तृतीय के सभाकवि थे। इस चम्पूकाव्य का रचनाकाल ९५९ ई० है। अन्तःसाक्ष्य के आधार पर इसके रचयिता सोमदेव ही हैं-श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः, शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः। तस्याश्चयंतपःस्थिते. स्त्रिनवतेजैतुमहावादिना, शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष कान्यक्रमः ॥ यशस्तिलक भाग २ पृ० ४१८ । सोमदेव की 'नीतिवाक्यामृत' नामक अन्य रचना भी उपलब्ध है। 'यशस्तिलक चम्पू' में जैन मुनि सुदत्त द्वारा राजा मारिदत्त को जैनधर्म की दीक्षा देने का वर्णन है। मारिदत्त एक क्रूरकर्मा राजा था जिसको धार्मिक बनाने के लिए मुनि जी के शिष्य अभयरुचि ने यशोधर की कथा सुनाई थी। जैनपुराणों में भी यशोधर का चरित वर्णित है। कवि ने प्राचीन ग्रंथों से कथा लेकर उसमें कई नवीन परिवर्तन किये हैं। इसमें दो कथाएं संश्लिष्ट हैं--मारिदत्त की कथा तथा यशोधर की कथा । प्रथम के नायक मारिदत्त हैं तथा द्वितीय के यशोधर । इसमें कई पात्रों के चरित्र चित्रित हैं - मारिदत्त, अभयरुचि, मुनिसुदत, यशोधर, चन्द्रमति, अमृतमति, यशोमति आदि । इस ग्रन्थ की रचना सोद्देश्य हुई है और इसे धार्मिक काव्य का रूप दिया गया है। इसमें कुल आठ आश्वास या अध्याय हैं, जिनमें पांच आश्वासों में कथा का वर्णन है और शेष तीन आश्वासों में जैनधर्म के सिद्धान्त वणित हैं । निर्वेद का परिपाक ही इसका लक्ष्य है और अङ्गीरस शान्त है । धार्मिकता की प्रधानता होते हुए भी इसमें शृङ्गार रस का मोहक वर्णन है। इसकी गद्य-शैली अत्यन्त प्रौढ़ है तथा वयंविषयों के अनुरूप 'गादबद्ध वृहत् समस्तपदावली' प्रयुक्त हुई है । कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार छोटेछोटे वाक्य एवं सरल पदावली का भी प्रयोग हुआ है । इसके पद्य काव्यात्मक एवं सूक्ति दोनों ही प्रकार के हैं। इसके चतुषं आश्वास में अनेक कवियों के श्लोक उद्धत हैं। प्रारम्भ में कवि ने पूर्ववत्ती कधियों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अपना काव्य. विषयक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने नम्रतापूर्वक यह भी स्वीकार किया है कि बौद्धिक प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष में ही नहीं रहती। सर्वज्ञकल्पः कविभिः पुरातमैरवीक्षितं वस्तु किमस्ति सम्प्रति । एदंयुगीनस्तु कुशाग्रधीरपि प्रवक्ति यत्तत्सदृशं स विस्मयः ॥ १।११ ।