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विश्वेश्वर पण्डित
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[विष्णुदत्त शुक्ल 'वियोगी'
वैशेषिकदर्शन का ग्रन्थ है जिसकी रचना १६८ कारिकाओं में हुई है। विषयप्रतिपादन की स्पष्टता एवं सरलता के कारण इसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इस पर महादेव भट्ट भारद्वाज कृत 'मुक्तावलीप्रकाश' नामक अधूरी टीका है जिसे टीकाकार के पुत्र दिनकरभट्ट ने "दिनकरी' के नाम से पूर्ण किया है। 'दिनकरी' के ऊपर रामरुद्रभट्टाचार्य कृत "दिनकरीतरंगिणी' नामक प्रसिद्ध व्याख्या है जिसे 'रामरुद्री' भी कहते हैं। न्यायसूत्रवृत्ति-इस ग्रन्थ की रचना १६३१ ई. में हुई थी। इसमें न्यायसूत्रों की सरल व्याख्या प्रस्तुत की गयी है जिसका आधार रघुनाथ शिरोमणि कृत व्याख्यान है। __आधारग्रन्थ-१. भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय । २. भारतीय-दर्शनडॉ० उमेश मिश्र।
विश्वेश्वर पण्डित-काव्यशास्त्र के आचार्य। इन्होंने 'अलंकारकौस्तुभ' नामक अत्यन्त प्रौढ़ अलंकार ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इनका समय १८वीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल है। ये उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के 'पटिया' नामक ग्राम के निवासी थे। इनकी उपाधि पाण्डेय थी तथा पिता का नाम लक्ष्मीधर था। ये अपने समय के प्रतिष्ठित मूर्धन्य विद्वान एवं अलंकारशास्त्र के अन्तिम प्रौड़ बाचाय थे। इन्होंने व्याकरण, साहित्यशास्त्र एवं तर्कशास्त्र पर समान अधिकार के साथ मेखनी चलायी है। 'व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि' व्याकरण का विशालकाय ग्रन्थ है जो अपनी उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध है। न्यायशास्त्र पर इन्होंने 'तकंकुतूहल' एवं 'दीधितिप्रवेश' नामक ग्रन्थों की रचना की है। साहित्यशास्त्रविषयक इनके पांच ग्रन्थ है-अलंकारकौस्तुभ, अलंकारमुक्तावली, अलंकारप्रदीप, रसचन्द्रिका एवं कवीन्द्रकव्ठाभरण । इनमें प्रथम ग्रन्थ ही इनकी असाधारण रचना है । 'अलंकारकौस्तुभ' में नव्यन्याय की शेली का अनुसरण करते हुए ६१ अलंकारों का तकपूर्ण एवं प्रामाणिक विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ में विभिन्न आचार्यों द्वारा बढ़ाये गए अलंकारों की परीक्षा कर उन्हें मम्मट द्वारा वर्णित ६१ अलंकारों में ही गतार्थ कर दिया गया है और हत्यक, शोभाकरमित्र, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित एवं पण्डितराज जगन्नाथ के मतों का युक्तिपूर्वक खण्डन किया गया है। अन्य के उपसंहार में लेखक ने इसके उद्देश्य पर प्रकाश डाला है
अन्यरुदीरितमलंकरणान्तरं यत् काव्यप्रकाशकथितं तदनुप्रवेशात् । संक्षेपतो बहुनिबन्धविभावनेनालंकारजातमिह चारुमयान्यरूपि ॥ अलंकारकोस्तुभ पृ० ४१९ ।। 'बलंकारकौस्तुभ' पर स्वयं लेखक ने ही टीका की रचना की थी जो रूपकालंकार तक ही प्राप्त होती है । विश्वेश्वर अच्छे कवि थे। इन्होंने अलंकारों पर कई स्वरचित सरस उदाहरण दिये हैं।
विष्णुदत्त शुक्ल 'वियोगी'-इनका जन्म १८९५ ई० में हुआ है। इन्होंने 'मंगा' एवं 'सोलोचनीय' नामक दो काव्यग्रन्थ लिखे हैं। 'गंगा' पांच सों में रचित खण्डकाव्य है। 'सौलोचनीय' का प्रकाशन १९५८ ई० में वाणीप्रकाशन, २०११ कस्तूरबा गांधी मार्ग, कानपुर से हुआ है। इसमें मेघनाद ( रावण का पुत्र ) की