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आचार्य जयदेव]
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[आचार्य दण्डी
इस ग्रन्थ की विशेषता है एक ही श्लोक में अकालंर या अन्य विषयों का लक्षण देकर उसका उदाहरण प्रस्तुत करना। इस प्रकार की समासशैली का अवलंब लेकर लेखक ने ग्रन्थ को अधिक बोधगम्य एवं सरल बनाया है। 'चन्द्रालोक' में सबसे अधिक विस्तार अलंकारों का है और इन्होंने १७ नवीन अलंकारों का वर्णन किया हैउन्मीलित, परिकराङ्कर, प्रौढोक्ति, संभावना, प्रहर्षण, विषादन, विकस्वर, विरोधाभास, असंभव, उदारसार, उल्लास, पूर्वरूप, अनुगुण, अवज्ञा, पिहित, भाविकच्छवि एवं अन्योक्ति। अध्येताओं में इस ग्रन्थ का अधिक प्रचार है और हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों के लिये यह ग्रन्थ मुख्य उपजीव्य था । इस युग के अनेक आलंकारिकों ने इसका पद्यानुवाद किया था। इसकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ हैं
१-शरदागम टीका-इसके रचयिता प्रद्योतनभट्ट हैं। इन्होंने कामसूत्र की भी टीका की थी ( १५७७ ई० में ) और 'कंदर्पचूडामणि' नामक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का भी प्रणयन किया था।
२-रमा टीका-इसके रचयिता वैद्यनाथ पायगुण्ड हैं। ये प्रसिद्ध वैयाकरण नागोजीभट्ट के शिष्य थे। __ ३–राकागम टीका-इसके रचयिता गागाभट्ट हैं। इनका वास्तविक नाम विश्वेश्वरभट्ट था । इनका समय १६२८ वि० सं० है। ___अप्पयदीक्षित कृत 'कुवलयानन्द' एक प्रकार से चन्द्रालोक के 'पंचममयूख' की विस्तृत व्याख्या ही है। इसकी अन्य टीकाएं भी हैं—विरूपाक्ष कृत शारदशर्वरी, वाजचन्द्रचन्द्रिका एवं चन्द्रालोकदीपिका आदि । हिन्दी में चन्द्रालोक के कई अनुवाद प्राप्त होते हैं । चौखम्बा विद्याभवन से संस्कृत हिन्दी टीका प्रकाशित है।
आधारग्रन्थ चन्द्रालोक-सुधा-पं० विश्वमाथ त्रिाठी।
आचार्य दण्डी–इन्होंने 'काव्यादर्श' नामक सुप्रसिद्ध अलंकारग्रन्थ का प्रणयन किया है। [ दे० काव्यादर्श ] [ इनके जन्म एवं अन्य बातों के लिए देखिए दण्डी ] ये अलंकारवादी आचार्य हैं और काव्य के शोभाकारकधर्म को अलंकार कहते हैं। इन्होंने 'काव्यादर्श' में अलंकार, दोष, गुण एवं काव्य-रूप का वर्णन किया है। इनके अनुसार इष्ट या चमत्कारपूर्ण पदावली ही काव्य है-शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली । १११० काव्यादर्श। काव्य के हेतु पर विचार करते हुए इन्होंने प्रतिभा, अध्ययन एवं अभ्यास तीनों के संयुक्त रूप को काव्य का कारण स्वीकार किया है । ये प्राक्तन संस्कार से उत्पन्न प्रतिभा के न रहने पर भी अध्ययन एवं अभ्यास के कारण कवि में काव्यरचना की शक्ति को स्वीकार करते हैं
नैसगिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम् । अमन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारण काव्यसम्पद; ॥ १।१०३ न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धिप्रतिमानमद्भुतम् ।
श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ।। १।१०४ दोष के संबंध में दण्दी की दृष्टि अत्यन्त कड़ी है। इनके अनुसार दोष-युक्त काव्य कवि की मूर्खता का द्योतक एवं दोष-रहित तथा गुणालंकारपूर्ण रचना कामधेनु के