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छागलेयोपनिषद् ]
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[जगदीश भट्टाचार्य
- छागलेयोपनिषद-इसकी एकमात्र पाण्डुलिपि आड्यार लाइब्रेरी में मिलती है । इसका प्रकाशन तीन स्थानों से हो चुका है। यह अल्पाकार उपनिषद् है। इसमें कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत निवास करने वाले वालिश नामक ऋषियों द्वारा कवषऐलूष को उपदेश देने का वर्णन है। इसके अन्त में 'छागलेय' शब्द का एक बार उल्लेख हुआ है। इसमें रथ का दृष्टान्त देकर उपदेश दिया गया है । सरस्वती-तीरवासी ऋषियों ने 'कवषऐलूष' को 'दास्याःपुत्र' कह कर उसकी निन्दा की तथा 'कवष' ने उनसे ज्ञान प्राप्त करने की प्रार्थना की । इस पर ऋषियों ने उसे कुरुक्षेत्र में बालिशों के पास जाकर उपदेश-ग्रहण करने का आदेश दिया। वहाँ 'कवषऐलुष' ने एक वर्ष तक रहकर ज्ञान प्राप्त किया। ___ छान्दोग्य उपनिषद्-यह 'छान्दोग्य ब्राह्मण' का अन्तिम आठ प्रपाठक है। इसकी रचना गयबद्ध है तथा निगूढ़ दार्शनिक तत्वों का प्रतिपादन आख्यायिकाओं के द्वारा किया गया है। प्रथम पांच प्रपाठकों में परमात्मा की अनेक प्रकार की प्रतीकोपासनाएँ वर्णित हैं तथा अन्तिम तीन में तत्वज्ञान का निरूपण है। इसके प्रथम एवं द्वितीय अध्यायों में अनेक विद्याओं का वर्णन है तथा ऊंकार एवं साम के गूढरहस्य का विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्याय के अन्त में 'शैव-उद्गीथ' के अन्तर्गत भौतिक आवश्यकता की पूत्ति के लिए यज्ञ का विधान तथा सामगान करने वाले व्यक्तियों पर व्यंग्य किया गया है। तृतीय अध्याय में देवमधु के रूप में सूर्य की उपासना, गायत्री का वर्णन, घोरआंगिरस द्वारा देवकी पुत्र कृष्ण को अध्यात्म-शिक्षा एवं अण्ड से सूर्य की उत्पत्ति का वर्णन है । चतुर्थ अध्याय में सत्यकाम जाबाल की कथा, रैक्य का दार्शनिक तथ्य एवं सत्यकाम जाबाल द्वारा उपकोशल को ब्रह्मज्ञान देने का वर्णन है। पंचम अध्याय में प्राण, वाक्, चक्षु, श्रोत्र एवं मन की उपयोगिता पर विचार किया गया है तथा सृष्टि सम्बन्धी तथ्य वर्णित हैं। छठे अध्याय में श्वेतकेतु की कथा दी गयी है
और वटवृक्ष के रूपक द्वारा ब्रह्मतत्त्व का विवेचन है। इसमें आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मतत्व का ज्ञान दिया है। सातवें अध्याय से 'भूमादर्शन' का स्वरूप विवेचित है तथा आठवें अध्याय में इन्द्र और विरोचन की कथा के माध्यम से 'आत्मप्राप्ति के व्यावहारिक उपायों का संकेत है। इसमें ज्ञानपूर्वक कर्म की प्रशंसा की गयी है।
जगदीश भट्टाचार्य-नवद्वीप (बंगाल) के सर्वाधिक प्रसिद्ध नैयायिकों में जगदीश भट्टाचार्य या तर्कालंकार का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इनका समय १७वीं शताब्दी है । इन्होंने नव्यन्याय सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण अन्यों की रचना की है। [नव्यन्याय न्यायदर्शन की एक महत्वपूर्ण शाखा है जिसके प्रवर्तक हैं मैथिल नैयायिक गंगेशं उपाध्याय । दे. न्यायदर्शन ] जगदीश ने रघुनाथ शिरोमणि के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'दीधिति' [ दे० रघुनाथ शिरोमणि ] की विशद एवं प्रामाणिक टीका लिखी है। यह टीका 'जगदीश' के नाम से दार्शनिक जगत् में विख्यात है। इनका द्वितीय ग्रन्थ 'शब्दशक्ति प्रकाशिका' है जिसमें साहित्यिकों की व्यंजना नामक शब्दशक्ति का खण्डन किया गया है। यह शब्दशक्तिविषयक अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ है ।