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न्याय-प्रमाण-मीमांसा]
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[न्याय-प्रमाण-मीमांसा
१०. वाद-तत्वज्ञान के इच्छुकों-वादी-प्रतिवादी-की कथा को वाद कहते हैं । इसमें तकं एवं प्रमाण के आधार पर परमत का खंडन करते हुए स्वमत की स्थापना की जाती है। इसका उद्देश्य तत्व का परिज्ञान या वस्तु के स्वरूप की अवगति है । वादी एवं प्रतिवादी दोनों का ही ध्येय यथार्थज्ञान की प्राप्ति है।
११. जल्प-प्रतिवादी के कोरे बकवास को जल्प कहते हैं, जिसका उद्देश्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना नहीं होता। यहां दोनों का ही उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना होता है।
१२. वितण्डा-जब वादी अपने पक्ष की स्थापना न कर केवल प्रतिपक्षी के पक्ष का खण्डन करते हुए अपने मत का समर्थन करे तो वहाँ वितण्डा होता है। इसका उद्देश्य केवल परपक्ष का दूषण होता है ।
१३. हेत्वाभास-जो वास्तविक हेतु न होकर हेतु की भाँति प्रतीत हो उसे हेत्वाभास कहते हैं। सत् हेतु के अभाव में अयथार्थ अनुमान ही हेत्वाभास कहा जाता है। इसमें अनुमान के दोष विद्यमान रहते हैं।
१४. छल-अभिप्रायान्तर से प्रयोग किये गए शब्द की अन्य अर्थ में कल्पना कर दोष दिखाना छल है। अर्थात् प्रतिवादी के अन्य अभिप्राय से कथित शब्दों का अन्या कल्पित कर उसमें दोष निकालना छल है।
१५. जाति-असत या दुष्ट उत्तर ही जाति है और उत्कर्षमना और अपकर्षमना भेद से यह चौबीस प्रकार की होती है ।
१६. निग्रहस्थान-वाद-विवाद में शत्रु की पराजय सिद्ध कर देने वाले पदार्थ को निग्रहस्थान कहा जाता है। यह पराजय का हेतु होता है तथा न्यून, अधिक, अपसिवान्त, अर्थान्तर, अप्रतिभा, मतानुज्ञा, विरोध आदि के भेद से २२ प्रकार का होता है।
प्रमाण-विचार-न्यायदर्शन में यथार्थज्ञान की प्राप्ति के लिए चार प्रमाण हैं-. प्रत्यक्ष, अनुमान, · उपमान और शन्द । ज्ञान के दो प्रकार हैं-प्रमा और अप्रमा। यथार्थानुभव को प्रमा कहा जाता है। जो वस्तु प्रमा या यथार्थज्ञान की उत्पत्ति में साधन बने उसे प्रमाण कहते हैं। जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में ग्रहण प्रम। एवं उससे भिन्न रूप में ग्रहण करने को · अयथार्थज्ञान या अप्रमा कहते हैं। प्रमा के चार प्रकार होते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, पमान और शब्द ।
क. प्रत्यक्ष-"प्रत्यक्ष उस असंदिग्ध अनुभव को कहते हैं जो इन्द्रिय संयोग से उत्पन्न होता है और यथार्थ भी होता है ।" अर्थात् इन्द्रिय के सम्पर्क से प्राप्त होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष के कई प्रकार से भेद किये गए हैं। प्रथमतः इसके दो भेद हैं लोकिक और अलौकिक । लौकिक भी दो प्रकार का होता है-बाह्य और आन्तर ( मानस)। बहरिन्द्रियों के द्वारा साध्य प्रत्यक्ष बाह्य होता है। जैसे-बांख, नाक, कान, त्वचा एवं जिह्वा के द्वारा होने वाला प्रत्यक्ष । केवल मन के द्वारा या मानस अनुभूतियों से होने वाला प्रत्यक्ष मान्तर होता है। पंचज्ञानेनियों के द्वारा