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ऋषिपुत्र]
[ऐतरेय मारण्यक
ग्रन्थ में ऋतुसंहार के दो श्लोक उद्धृत हैं तथा उसने इसकी उपमाएं भी ग्रहण की हैं । इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। वस्तुतः ऋतुसंहार महाकवि की प्रामाणिक रचना है। षड्ऋतुओं के वर्णन में कवि ने केवल बाह्यरूप का ही चित्रण नहीं किया है परन्तु अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का प्रदर्शन करते हुए प्रत्येक ऋतु की विशिष्टताओं का अंकन किया है।
आधारग्रन्थ-१. कालिदास ग्रन्थावली-सम्पादक आ० सीताराम चतुर्वेदी २. कालिदास के काव्य-पं० रामप्रसाद शास्त्री ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास-श्री ए. बी० कीष ४. महाकवि कालिदास-डॉ० रमाशंकर तिवारी। __ ऋषिपुत्र --ज्योतिषशास्त्र के आचार्य । इनके संबंध में कोई प्रामाणिक विवरण प्राप्त नहीं होता। इन्हें जैनधर्मानुयायी ज्योतिषी माना जाता है। 'कैटलोगस बैटा. गोरूम' (आफेट कृत) में इन्हें आचार्य गर्ग (प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री) का पुत्र कहा है। गर्गाचार्य के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है । जैन आसीजगढन्द्यो गर्गनामा महामुनिः । तेन स्वयं हि निर्णीतं यं सत्पाशात्रकेवली॥ एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम् । प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना । ___ ऋषिपुत्र का लिखा हुआ 'निमित्तशास्त्र' नामक ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध है तथा इनके द्वारा रचित एक संहिता के उद्धरण 'बृहत्संहिता' की भट्टोत्पली टीका में प्राप्त होते हैं । ये वराहमिहिर ( ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् ) के पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं। वाराहमिहिर ने 'बृहज्जातक' के २६ वें अध्याय में ऋषिपुत्र का प्रभाव स्वीकार किया है-मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्धोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार । [ दे० वराहमिहिर ]
आधारग्रन्थ-भारतीय ज्योतिष-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री।
ऐतरेय आरण्यक-- यह ऋग्वेद का आरण्यक तथा [दे० आरण्यक ] ऐतरेय. ब्राह्मण का परिशिष्ट भाग है। इसमें पांच आरण्यक हैं और उन्हें स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता है। प्रथम आरण्यक में महाव्रत का वर्णन है जो 'ऐतरेय ब्राह्मण' के 'गवामयन' का ही एक अंश है। द्वितीय प्रपाठक के प्रथम तीन अध्यायों में उक्थ, प्राणविद्या 'एवं पुरुष का वर्णन है। तृतीय आरण्यक को 'संहितोपनिषद्' भी कहते हैं। इसमें शाकल्य एवं माण्ड्य के मत वर्णित हैं और संहिता, पद, क्रमपाठों का वर्णन तथा स्वरव्यंजनादि के स्वरूपों का विवेचन है। इस अंश को प्रातिशाख्य और निरुक्त से भी पूर्ववर्ती माना गया है। इसमें निमुंज ( संहिता) पतॄष्ण (पद), सन्धि, संहिता आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। चतुर्थ आरण्यक अत्यन्त छोटा है। अन्तिम आरण्यक में निष्केवल्य शस्त्र का वर्णन है। पांच आरण्यकों में प्रथम तीन के ऐतरेय, चतुर्थ के माश्वलायन और पंचम के लेखक शौनक हैं । डॉ० ए० बी० कीथ के अनुसार इसका समय वि० पू० षष्ठ शतक है। ___ क-इसका प्रकाशन सायणभाष्य के साथ आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली संख्या ३८, पूना से १९९८ ई० में हुआ था। ____ख-डॉ० कीथ द्वारा बांग्लानुवाद आक्सफोर्ड से प्रकाशित ।