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पुराण ]
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भागों पर पुराणों के पठन का उल्लेख हुआ है तथा इतिहास और पुराणों के अध्ययन को स्वाध्याय के अन्तर्गत माना गया है ( अध्याय ३ खण्ड ४) । याज्ञवल्क्य - स्मृति ने चतुर्दश विद्याओं में पुराणविद्या को भी मान्यता दी है तथा स्मृतिकार पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, चार वेद, छह वेदांग को चौदह विद्याएँ मानते हुए इन्हें धर्म का स्थान कहते हैं । पुराणन्याय-मीमांसाधर्मशास्त्रांग मिश्रिताः । वेदास्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ उपोदद्धात् श्लोक ३ ।
महाभारतकार ने पुराणों का महत्व प्रदर्शित करते हुए बताया है कि 'इतिहास और पुराणों के द्वारा ही वेद का उपबृंहण करना चाहिए।' इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । पुराणों के वर्ण्यविषयों की चर्चा करते हुए महाभारतकार कहते हैं कि इसमें अनेक दिव्य कथाएं होती हैं तथा विशिष्ट विद्वानों के आदिवंश का विवरण होता है - पुराणे हि कथा दिव्या आदि वंशाश्च धीमताम् । कथ्यन्ते ये पुरास्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव || आदिपर्व ५।२ । बाल्मीकि रामायण में सुमन्त्र को पुराणवित् बतलाकर पुराणों की सत्ता की स्पष्ट घोषणा की गई है तथा यह भी विचार व्यक्त किया गया है कि राजा दशरथ ने सन्तानहीनता के निवारण की बात पुराणों में सुनी थी । इत्युक्त्वान्तः पुरद्वारमाजगाम पुराणवित् । अयोध्याकांड १५।१८। श्रूयतां यत् पुरावृत्तं पुराणेषु यथाश्रुतम् । बालकाण्ड ९ | १| कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक स्थानों पर पुराण एवं इतिहास का स्पष्ट निर्देश है । इसमें मन्त्री द्वारा इतिहास एवं पुराण के आधार पर राजा को कुपथ से रोकने का वर्णन है । मुख्यैरवगृहीतं वा राजानं तत् प्रियाश्रितः । इतिवृत्त पुराणाभ्यां बोधयेदर्थशास्त्रवित् ॥ अर्थशास्त्र ५। ६ । याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति, व्यासस्मृति प्रभृति ग्रंथों एवं दर्शनों में भी पुराण का निर्देश है तथा कुमारिल, शङ्कर आदि दार्शनिकों एवं बाणभट्ट जैसे कवियों ने भी अपने ग्रन्थों में पुराणों का उल्लेख किया है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पुराणविद्या का उदय अथर्ववेद के ही समय से हो चुका था। जिस प्रकार ऋषियों ने वैदिक साहित्य को व्यवस्थित किया उसी प्रकार पुराणों का भी वर्गीकरण एवं सम्पादन उनके ही द्वारा हुआ । पर इतना निश्चित है कि वैदिक युग तक पुराणों का रूप मौखिक परम्परा में ही सुरक्षित था एवं उसका स्वरूप धूमिल बना रहा, जिससे कि उसके वण्यंविषय का स्पष्ट निर्देश उस समय तक न हो सका । स्मृतियों में पुराणों को विद्यास्थानों का पद प्राप्त हुआ है एवं श्राद्ध के अवसर पर मनुस्मृति के अनुसार पुराणों के पाठ को पुण्ययुक्त बतलाया गया है ।
पुराण का लक्षण एवं वण्यं विषय-पुराणों को पंचलक्षणसमन्वित माना जाता है जिनमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित आते हैं । सर्गश्च प्रतिसगंश्च वंशोमन्वन्तराणि च । वंश्यानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ विष्णुपुराण ३।६।२४ | सर्ग - सगं का अर्थ है सृष्टि की उत्पत्ति । संसार या उससे सम्बद्ध नाना प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति ही सगं है । प्रतिसगं-- प्रतिसर्ग सगं का विपरीत है जिसे प्रलय कहते हैं । इसके बदले 'प्रतिसंचर' एवं 'संस्था' शब्द का भी प्रयोग होता है । इस ब्रह्माण्ड का स्वाभाविक रूप से ही प्रलय होता है जो चार प्रकार है- नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य