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काव्यशास्त्र]
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[काव्यशास्त्र
परवर्ती आचार्यों ने रीति की महत्ता स्वीकार करते हुए भी उसे काव्य की आत्मा नहीं माना और इसे शरीरावयवों की भांति काव्य का अङ्ग स्वीकार किया। रीति-सम्प्रदाय काव्य के प्राण तत्त्व का विवेचन न कर उसके बाह्य रूप का ही निरूपण करता है। इसमें रसानुकूल वो एवं वर्णनानुकूल पद-विन्यास पर अधिक बल दिया जाता है। फलतः यह काव्य का बाह्यधर्मी तत्त्व सिद्ध होता है।
ध्वनि-सम्प्रदाय-यह सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का अप्रतिम सिद्धान्त तथा काव्यालोचन का प्रौढ़ तत्व है। इस सिद्धान्त की आधारशिला व्यन्जना है। ध्वनि सिद्धान्त के प्रवत्तंक आनन्दवर्द्धन हैं और पोषक हैं अभिनवगुप्त, मम्मट, रुय्यक तथा पण्डितराज जगन्नाथ । ध्वनि सिद्धान्त को प्रबलतम विरोध का भी सामना करना पड़ा है । भट्टनायक, धनन्जय, कुन्तक एवं महिमभट्ट ने इसका खण्डन कर इसके अस्तित्व को ही नष्ट करना चाहा था किन्तु ध्वनि सिद्धान्त अपनी आन्तरिक शक्ति के कारण जीवित रहा । आचार्य मम्मट ने ध्वनि-विरोधी आचार्यों के तकों का निरास कर उनकी धज्जियाँ उड़ा दी और काव्य के अन्तस्तत्त्व के रूप में ध्वनि की प्रतिष्ठा की। इस सिद्धान्त के आचार्यों ने ध्वनि को काव्य की आत्मा मानकर उसके तीन प्रकार कियें-वस्तुध्वनि, अलङ्कारध्वनि एवं रसध्वनि । ध्वनिवादी आचार्य काव्य के प्रतीयमान अथं की खोज करते हैं। जब वाच्यार्थ से व्यंग्याथं अधिक चारु या आकर्षक होता है तो उसे ध्वनि कहते हैं। रमणी के विविध शरीरावयवों से जिस प्रकार लावण्य की पृथक् सत्ता होती है उसी प्रकार काव्य में प्रतीयमान अर्थ उसके अङ्गों से पृथक् महाकवियों की वाणी में नित्य प्रतिभासित होता है। आनन्दवर्धन ने 'ध्वन्यालोक' में ध्वनि के स्वरूप, भेद एवं अन्य काव्य-सिद्धान्तों के साथ इसके सम्बन्ध का मूल्याङ्कन कर ध्वनि सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की है। इन्होंने रसध्वनि को काव्य की आत्मा माना है। ध्वनि सिद्धान्त में काव्य के अन्तस्तत्त्व का प्रथम विवेचन एवं उसमें कल्पना के महत्व को अधिक दर्शाया गया है।
। वक्रोक्ति सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आ० कुन्तक हैं जिन्होंने 'वक्रोक्तिजीवित' नामक युग प्रवत्तक ग्रन्य की रचना कर वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माना है। वक्रोक्ति की सर्वप्रथम महत्ता भामह ने स्थापित की थी और इसके बिना अलङ्कार के अस्तित्व को ही खण्डित कर दिया था। कुंतक ने वक्रोक्ति को अलङ्कार के पद से हटाकर स्वतन्त्र काव्य-सिद्धान्त का रूप दिया और ध्वनि के भेदों को वक्रोक्ति में ही गतार्थ कर इसकी गरिमा बढ़ा दी। इन्होंने वक्रोक्ति के छ: भेद किये-वर्णवक्रता, पदपूर्टिवक्रता, पदोत्तरार्धवक्रता, वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता एवं प्रबन्धवक्रता तथा उपचारवक्रता नामक भेद के अन्तर्गत ध्वनि के अधिकांश भेदों का अन्तर्भाव कर दिया है। वक्रोक्ति से कुन्तक का अभिप्राय चतुरतापूर्ण कविकर्म के कौशल की शैली या कथन से है । अर्थात् 'असाधारण प्रकार की वर्णनशैली ही वक्रोक्ति कहलाती है।'
___ वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥ १।१० भामह ने वक्रोक्ति को अलंकार का मूलतत्व माना था किन्तु कुंतक ने इसे फाव्य का मूलतत्त्व स्वीकार कर इसे काव्यसिद्धान्त का महत्व प्रदान किया।