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पाचरात्र ]
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[पाचरात्र
शिरसि स्थितम् । तदर्थकं पाचरात्रं मोक्षदं तक्रियावताम् ॥ प्रश्नसंहिता ग-ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि वाकोवाक्यमेकायनम् । छान्दोग्य ७।१२
उत्पलाचार्य की 'स्पन्दकारिका' (१० म शताब्दी ) में पाचरात्र के तीन विभागों के निर्देश प्राप्त होते हैं-पाचरात्र श्रुति, पाचरात्र उपनिषद् एवं पाचरात्रसंहिता । पाञ्चरात्रश्रुतावपि-यद्वत् सोपानेन प्रासादमावहेत्, प्लवनेन वा नदी तरेत् । तद्वत् शास्त्रेण हि भगवान् शास्ता अवगन्तव्यः । स्पन्दकारिका पृ० २। पाचरात्रोपनिषद् च-ज्ञाता च ज्ञेयश्च वक्ता च भोक्ता च भोज्यन्च । वही पृ० ४० ।
इन उल्लेखों के आधार पर पान्चरात्र महाभारत से प्राचीन सिद्ध होता है और इसकी सीमा उपनिषत्काल में चली जाती है। पाचरात्रविषयक विपुल साहित्य प्राप्त होता है जो अत्यन्त प्राचीन भी है। 'कपिन्जलसंहिता' में पाचरात्र संहिताएँ २१५ बतलायी गयी हैं जिनमें अगस्तसंहिता, काश्यपसंहिता, नारदीयसंहिता, विष्णुरहस्यसंहिता मुख्य हैं । अभी तक १३ संहिताएं प्रकाशित हैं- अहिर्बुध्न्यसंहिता, ईश्वरसंहिता, कपिन्जल. संहिता, पराशरसंहिता, पाद्मतन्त्र, बृहत् ब्रह्मसंहिता, जयाख्यसंहिता भारद्वाजसंहिता, लक्ष्मीतन्त्र, विष्णुतिलक, श्रीप्रश्नसंहिता, विष्णुसंहिता एवं सात्वतसंहिता। अहिर्बुध्न्यसंहिता-इसका प्रकाशन अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से हुआ है। इसमें अहिर्बुध्न्य द्वारा तपस्या करने के पश्चात् संकर्षण से सुदर्शन स्वरूप के सत्यज्ञान प्राप्त करने का वर्णन है। ईश्वरसंहिता-इसका प्रकाशन कंजीवरम से.१९२३ ई० में हुआ है। इसमें २४ अध्याय हैं और १६ अध्यायों में पूजा की विधि का वर्णन है। शेष अध्यायों में मूत्तियों के विवरण, दीक्षा, ध्यान, मन्त्र, प्रायश्चित्त, संयम तथा यादव गिरि की पवित्रता का वर्णन है । जयाख्यसंहिता का प्रकाशन गायकवाड ओरियण्टल सीरीज संख्या ४५ से हो चुका है । पराशरसंहिता-इसमें ईश्वर के नाम-जप की विधि दी गयी है।
पाल्चरात्र' नाम के भी कई कारण प्रस्तुत किये जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में (१३३६१) 'पाल्चरात्रसत्र' का वर्णन है जिसे समस्त प्राणियों पर आधिपत्य जमाने के लिए नारायण को पांच दिनों तक करना पड़ा था। 'महाभारत' में कहा गया है कि वेद एवं सांख्ययोग के समावेश होने के कारण इस मत का नाम पाचरात्र पड़ा है। ईश्वरसंहिता के अनुसार पांच ऋषियों-शाण्डिल्य, औपगायन, मोजायन, कौशिक एवं भारद्वाज ने मिलकर इसका उपदेश पांच रातों में दिया था इसलिए यह पाचरात्र कहलाया। पद्मसंसिता के अनुसार अन्य पांच शास्त्रों के इसके समक्ष रात्रि के समान मलिन पड़ जाने के कारण इसकी अभिधा पाचरात्र है । सांख्यं योगं पाचरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा । आत्मप्रमाणान्येतानि न हन्तध्यानि हेतुभिः ॥ श्रीभाष्य २।२।४२ 'नारद. पाचरात्र के अनुसार पांच विषयों का विवेचन होने के कारण इसे पाचरात्र कहते हैं । वे पांच तत्व हैं-परमतत्व, मुक्ति, मुक्ति, योग एवं विषय । रात्रच ज्ञानवचनं शानं पन्चविधं स्मृतम्-नारदपाल्चरात्र ११४४।
पाचरात्र में परब्रह्म को अद्वितीय, दुःखरहित, निःसीमसुखानुभवल्प, अनादि एवं अनन्त माना गया है जो समस्त प्राणियों में निवास करने वाला तथा सम्पूर्ण जगत् में