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उत्तररामचरित ]
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[ उत्तररामचरित
सीता के प्रति उनके मन की उदात्त भावना का पता इस श्लोक से लगता हैत्वया जगन्ति पुण्यानि त्वय्यपुष्या जन नाथवन्तस्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यसे ॥ १४३
'तुमसे संसार पवित्र है, पर तुम्हारे सम्बन्ध में लोगों की उक्तियाँ अपवित्र हैं । तुमसे लोक सनाथ है और तुन अनाथ होकर विपत्ति उठाओगी ।'
सीता का परित्याग करने से राम अपने को क्रूरकर्मा समझने लगते हैं। अपने अंक मैं सिर रखकर सोई हुई सीता के सिर को वे हुए राम कह रहे हैंअपूर्व कर्मचाण्डालमयि मुग्धे विमुञ्च माम् । श्रितासि चन्दनभ्रान्त्या दुविपाक विषद्रुमम् ॥ १।४६
तथा-
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विस्रम्भादुरसि निपत्य लब्धनिद्रामुन्मुच्य प्रियगृहिणी गृहस्य शोभाम् । आतङ्कस्फुरितकठीरगभंगुर्वी क्रव्यादभ्यो बलिमिव निर्घृणः क्षिपामि ॥ १।४९ सोता के त्याग से राम को अत्यधिक दुःख एवं महती वेदना हुई है। उन्हें इसके लिए इतनी ग्लानि हुई जिसका वर्णन असंभव है। ऐसा लगता है कि उनका जीवन दुःखानुभव के लिए ही बना है और प्राण वज्रकील की भाँति हैं जो मर्म पर प्रहार तो करते हैं पर निकलते नहीं । दुःखसंवेदनायैव रामचैतन्य माहितम् । मर्मोपघातिभिः प्राणैर्वज्रकोलायितं हृदि || १।४७ कर्तव्य के आवेश में सोता का निष्कासन कर राम अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करते हुए अपने को 'अपूर्व कर्मचाण्डाल' समझते हैं। सीता के प्रति उनके मन में अनन्य स्नेह है । वे उनकी गृह-लक्ष्मी तथा आँखों में अमृतांजन हैं, उनका स्पर्श चन्दन की भाँति शीतल एवं उनकी बातें मुक्ता की माला है । उन्होंने कर्तव्य की वेदी पर अपने प्रेम की वलि देकर भीषण वज्रावात सहा है ।
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्तिर्नयनयोरसावस्याः स्पर्शो वपुषि बहुलश्चन्दनरसः । अर्थ बाहुः कण्ठे शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ॥ १३८ सीता- निष्कासन को उन्होंने जिन शब्दों में आज्ञा दी है उनके द्वारा उनके हृदय की व्यथा तथा राज्याधिकार के प्रति क्षोभ एवं आत्मग्लानि के भाव की मिश्रित अभिव्यक्ति होती है - 'एष नूतनो राजा रामः समाज्ञापयति । दण्डकारण्य में पूर्वानुभूत स्थलों एवं दृश्यों को देख कर वे सीता के विरहजन्य क्लेश से मूच्छित हो जाते हैंदलति हृदयं शोकोद्वेगाद द्विधा सुन भिद्यते,
वहति विकलः कायो मोहं न मुञ्चति चेतनाम् । ज्वलयति तनूमन्तर्दाहः करोति न भस्मसात्
प्रहरति विविधमर्मच्छेदी न कृन्तति जीवितम् ॥ ३।३१
'शोक को व्याकुलता से हृदय विदीर्ण होता है किन्तु दो भागों में विभक्त नहीं होता,
शोक से विह्वल शरीर मोह धारण करता है, पर वेतनता नहीं छोड़ता; की प्रज्वलित तो करता है, किन्तु भस्म नहीं करता; मर्म को विद्ध प्रहार तो करता है, लेकिन जीवन को नष्ट नहीं करता है।
अन्तदहि शरीर करनेवाला भाग्य
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