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बोट-दर्शन]
( ३१२)
[बौख-दर्शन
दुःख को देखकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने वन में जाकर तपस्या की तथा सन्यास ग्रहण कर लिया। ज्ञान प्राप्त होने पर उपदेश देकर उन्होंने भिक्षुओं के संघ की स्थापना की तथा 'मागधी' भाषा में अपने मत का प्रचार किया । ८० वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु कुशीनगर में हुई तथा उनके अनुयायियों ने उनके मत का प्रचार देश-देशान्तर में किया। गौतम बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके उपदेशों को तीन ग्रन्थों में संकलित किया गया। उनके उपदेश मौखिक भाषा में हुआ करते थे। ये उपदेश 'सुत्तपिटक', 'विनयपिटक' एवं 'अभिधम्मपिटक' नामक ग्रन्थों में संगृहीत हैं । प्रथम में बुद्ध के उपदेश हैं तथा द्वितीय में उनके भाचार-सम्बन्धी विचारों का संग्रह है। तृतीय दार्शनिक विचार का ग्रन्थ है। इन्हें ही बौद्धधर्म में त्रिपिटक की अभिधा प्राप्त है। पिटक का अर्थ पिटारी है। यहाँ इसका अभिप्राय नैतिक नियमों की पिटारी से है। कालान्तर में बौद्धधर्म दो सम्प्रदायों में बंट गया-हीनयान एवं महायान । हीनयान के मत का निरूपण पालि भाषा में किया गया है, किन्तु महायान का सिद्धान्त संस्कृत में निबद्ध है। इसके आचार एवं तत्त्वज्ञानविषयक ग्रन्थों में नो प्रधान हैं-'सद्धर्मपुण्डरीक' (हिन्दी अनुवाद के साथ राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित), 'प्रज्ञापारमितासूत्र', 'गण्डव्यूहसूत्र', 'दशभूमिकसूत्र', 'रत्नकूट', 'समाधिराजसूत्र', 'सुखावतीव्यूह', सुवर्णप्रभाससूत्र' तथा 'लंकावतारसूत्र' ।
बुद्ध की शिक्षा-उनका उद्देश्य तक के सहारे अध्यात्मवाद की गुत्थियों का सुलझाना न होकर क्लेशबहुल प्रपंच से छुटकारा पाने के लिए आचार के मार्ग का ही निर्देश करना था। आचारशास्त्र के सम्बन्ध में बुद्ध ने चार आर्यसत्यों का विवेचन किया है। संसार का जीवन दुःखपूर्ण है-सर्व दुःखम्, इन दुःखों के कारण विद्यमान हैं-दुःखसमुदयः, इन दुःखों से वास्तविक मुक्ति की प्राप्ति संभव है-दुःखनिरोधः, इस निरोध की प्राप्ति के लिए उचित मार्ग या उपाय है-दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद । इस प्रकार चार आर्यसत्य हुए-दुःख की विद्यमानता, उसके कारण की विद्यमानता, उसके निरोध की संभाव्यता एवं उसमें सफलता प्राप्त करने का मार्ग। प्रथम आर्यसत्य के अनुसार जीवन दुःखमय है और संसार में मृत्यु का दुःख सबसे बड़ा दुःख है जिससे पचना असम्भव है। सभी पदार्थ क्षणिक और नाशवान हैं। सभी प्रकार के दुःखों से बचने के लिए सबसे अच्छा उपाय यह है कि संसार को ही छोड़ दिया जाय । इससे यह मात होता है कि बुद्ध ने संसार की सभी वस्तुओं के अन्धकारमय पक्ष पर ही अधिक बल दिया था। दुःख के कारण-भगवान् बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार दुःख के कारण को जानने का प्रयास किया है । इसमें बताया गया है कि संसार में अकारण कोई भी वस्तु नहीं है प्रत्येक विषय का कारण होता है। अतः कारण के अभाव में दुःख की उत्पत्ति संभव ही नहीं है। संसार में दो ही दुःख प्रधान हैं-जरा और मरण । शरीरधारण करने के कारण ही जरा-मरण का दुःख भोगना पड़ता है, यदि शरीर-धारण न हो तो दोनों ही दुःखों से छुटकारा मिल जा सकता है। तृतीय आर्यसत्य है दु:खनिरोध या निर्वाण । इससे यह प्रकट होता है कि दुःख का कारण होता है और दुःख के कारण