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पाणिनि ]
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[पाणिनि
के ज्ञान के लिए शिक्षासूत्र' की रचना की थी जिसके अनेक सूत्र विभिन्न व्याकरण ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । पाणिनि के मूल 'शिक्षासूत्र' का उद्धार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया तथा इसका प्रकाशन 'वर्णोच्चारणशिक्षा' नाम से सं० १९३६ में किया।
जाम्बवतीविजय या पातालविजय-वैयाकरणों की प्रचलित दन्तकथा के अनुसार पाणिनि ने 'पातालविजय' नामक महाकाव्य का प्रणयन किया था जिसके कतिपय श्लोक लमभग २६ ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। राजशेखर, क्षेमेन्द्र तथा शरणदेव ने भी उक्त महाकाव्य का उल्लेख करते हुए इसका रचयिता पाणिनि को ही माना है। इनके द्वारा रचित अन्य काव्य-ग्रन्थ 'पार्वती-परिणय' भी कहा जाता है। राजशेखर ने वैयाकरण पाणिनि को कवि पाणिनि (जाम्बवती के प्रणेता) से अभिन्न माना है। क्षेमेन्द्र ने अपने 'सुवृत्ततिलक' नामक ग्रन्थ में सभी कवियों के छन्दों की प्रशंसा करते हुए पाणिनि के 'जाति' छन्द की भी प्रशंसा की है-नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह । आदी व्याकरणं, काव्यमनु जाम्बवती जयम् । कतिपय पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान्; जैसे पीटसन एवं भण्डारकर कवि एवं वैयाकरण पाणिनि को अभिन्न नहीं मानते। इनके अनुसार शुष्क वैयाकरण पाणिनि, ऐसे सरस एवं अलंकृत श्लोक की रचना नहीं कर सकता। साथ ही इस ग्रन्थ के श्लोकों में बहुत से ऐसे प्रयोग हैं जो पाणिनि-व्याकरण से सिद्ध नहीं होते अर्थात् वे अपाणिनीय या अशुद्ध हैं। पर रुद्रटकत 'काव्यालंकार' के टीकाकार नमिसाधु के इस कथन से यह बात निर्मूल सिद्ध हो जाती है। उनके अनुसार पाणिनिकृत 'पातालविजय' महाकाव्य में 'सन्ध्याबधू गृह्मकरेणभानुः' में 'गृह्य' शब्द पाणिनीय व्याकरण के मत से अशुद्ध है। उनका कहना है कि महाकवि भी अपशब्दों का प्रयोग करते हैं और उसी के उदाहरण में पाणिनि का श्लोक प्रस्तुत किया है। डॉ० ऑफेक्ट तथा डॉ. पिशेल ने पाणिनि को न केवल शुष्क वैयाकरण अपितु सुकुमार हृदय कवि भी माना है। अतः इनके कवि होने में सन्देह का प्रश्न नहीं उठता। श्रीधरदासकृत 'सदुक्तिकर्णामृत' (सं० १२०० ) में सुबन्धु, रघुकार (कालिदास ), हरिश्चन्द्र, शूर, भारवि तथा भवभूति ऐसे कवियों के साथ दाक्षीपुत्र का भी नाम आया है, जो पाणिनि का हो पर्याय है। सुबंधो भक्तिनः क इह रघुकारे न रमते धृतिर्दाक्षीपुत्रे हरति हरिश्चन्द्रोऽपि हृदयम् । विशुद्धोक्तिः शूरः प्रकृतिमधुरा भारवि गिरस्तथाप्यन्तर्मोदं कमपि भवभूतिवितनुते ॥
महाराज समुद्रगुप्त रचित 'कृष्णचरित' नामक काव्य में १० मुनियों का वर्णन है किन्तु उसके प्रारम्भिक १२ श्लोक खण्डित हैं। आगे के श्लोकों से ज्ञात होता है कि पूर्व श्लोकों में पाणिनि का भी वर्णन हुआ होगा। वररुचि या कात्यायन के प्रसंग में निम्नांकित श्लोक दिया गया है जिसमें बताया गया है कि वररुचि ने पाणिनि के व्याकरण एवं काव्य दोनों का ही अनुकरण किया था। न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवातिकैयः। काव्येऽपिभूयोऽनुचकार तं वै कात्यायनोऽसौ कवि कमंदक्षः ॥ 'जाम्बवतीविजय' में श्रीकृष्ण द्वारा पाताल में जाकर जाम्बवती से विवाह एवं उसके पिता पर विजय प्राप्त करने की कया है। पुर्घटवृत्तिकार शरणदेव ने 'जाम्बवतीविजय के १८३ संग का एक उबरण अपने ग्रन्थ में दिया है, जिससे विदित होता है कि उसमें कम से