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मृच्छकटिक ]
[ मृच्छकटिक
दशम अंक में चाण्डालों द्वारा चारुदत्त वधस्थान पर लाया जाता है । शकार के द्वारा बन्दी बनाया गया स्थावरक किसी तरह कूद कर कहता है कि वसन्तसेना की हत्या शकार ने की है। पर शकार उसे स्वर्ण का चोर बता कर उसकी बात को मिथ्या सिद्ध करता है। मैत्रेय के साथ चारुदत्त का पुत्र आता है और शकार उसे भी वध करने की राय प्रकट करता है। चाण्डाल चारुदत्त को वधस्थान पर ले जाकर खड्ग चलाता है, पर उसके हाथ से खड़ग गिर जाता है और चाण्डाल उसे शूली पर चढ़ाना चाहता है। इसी बीच भिक्षु के साथ वसन्तसेना आ जाती है और उसको जीवित देखकर चाण्डाल चारुदत्त को छोड़ देते हैं। वे राजा को यह समाचार जाकर देते हैं। शकार भाग जाता है और राज्य में क्रान्ति फैल जाती है। शविलक राजा पालक को मार देता है और आर्यक राजा बनाया जाता है। शकार को राजा की ओर से झूठे अभियोग के कारण प्राणदण्ड मिलता है, पर चारुदत्त के द्वारा उसे अभयदान मिलता है। उसी समय चन्दनक द्वारा यह सूचना प्राप्त होती है कि धूता पति के प्राणदण्ड का समाचार सुनकर चिता में जलना चाहती है। सभी लोग शीघ्रतापूर्वक जाकर उसे रोकते हैं और वसन्तसेना राजा के आदेश से चारुदत्त की वधू बना दी जाती है। चारुदत्त की इच्छा से भिक्षु को विहारों का अधिपति एवं दोनों चाण्डालों को चाण्डालों का अधिपति बनाया जाता है। चन्दनक पृथ्वीपालक का पद प्राप्त करता है और भरतवाक्य के पश्चात् नाटक की समाप्ति हो जाती है।
नामकरण-'मृच्छकटिक' का नामकरण विचित्रता का द्योतक है । नाटक अथवा काव्य का नामकरण कवि, पात्र अथवा मुख्य घटना या वयंविषय के आधार पर किया जाता है। यदि इस दृष्टि से विचार किया जाय तो वर्ण्यवृत्त के आधार पर इसकी अभिधा 'चारुदत्त' या 'दरिद्रचारुदत्त' होनी चाहिए थी। पर रचयिता ने किस आधार पर इसका यह नामकरण किया, इसका संकेत ६ 3 अंक में चारुदत्त के बालक की क्रीड़ा में दिखाई पड़ता है। चारुदत्त का पुत्र रोहसेन अपने पड़ोसी के बच्चे को सोने की गाड़ी से खेलते हुए देखता है, और मिट्टी की गाड़ी से न खेल कर सोने की गाड़ी लेना चाहता है। चारुदत्त की चेटी रदनिका उसे बहलाती और कहती है कि जब तुम्हारे पिता जी पुनः समृद्ध हो जायेंगे तो तुम सोने की गाड़ी से खेलना ! बालक जब इतने पर भी नहीं मानता है तो रदनिका उसे वसन्तसेना के घर ले जाती है। बालक को देखकर वसन्तसेना प्रसन्न हो गयी और उसने उसके रोने का कारण पूछा। वसन्तसेना ने कहा कि बेटा तुम सोने की ही गाड़ी से खेलना। वसन्तसेना की ममतामयी दृष्टि देखकर बालक ने पूछा कि रदनिके यह कौन है ? इस पर वसम्तसेना ने कहा कि मैं तुम्हारे पिता के गुणों पर जीवित उन्हीं की दासी हूँ। वह वसन्तसेना की यह बात न समझकर रदनिका की ओर उत्सुक होकर देखने लगा। इस पर रदनिका ने कहा कि ये तुम्हारी जननी हैं। पर बालक को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसकी बातों में उसे संगति नहीं दिखाई पड़ी। उसकी मां के शरीर पर आभूषण नहीं थे, जब कि वसन्तसेना का शरीर गहनों से पूर्ण था। अतः वह रदनिका से कहता है कि तुम झूठ बोल रही हो, यह मेरी मां नहीं है। यदि मेरी मां होती तो उसे इतने गहने