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वेणीसंहार]
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[वेणीसंहार
बाधिक्य के कारण, नाटक में कार्यान्विति का अभाव है तथा सभी अड्डों के दृश्य असम्बद्ध एवं विखरे से प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार सभी अखों के दृश्य परस्पर अनुस्यूत नहीं दिखाई पड़ते, और न एक अख की कथा का दूसरे में विकास होता है। द्वितीय अङ्क में वर्णित भानुमती के साथ दुर्योधन का प्रणय-प्रसङ्ग नितान्त अनुपयुक्त एवं असम्बद है तथा नाटक की मुख्य कथा के साथ इसका तुक भी नहीं बैठता और वीररसप्रधान नाटक के लिए यह नितान्त अनुचित प्रतीत होता है। अतः आचार्य मम्मट ने इसे 'अकाण्डे प्रथनम्' नामक दोष में परिगणित किया है । 'वणीसंहार' में घटनाओं का आधिक्य है, पर उनमें व्यापारान्विति ( यूनिटी ऑफ एक्शन ) का अभाव है। तृतीय अङ्क का कर्ण-अवश्वत्थामा विवाद मार्मिक भले ही हो, पर नाटकीय कथावस्तु के विकास की दृष्टि से अनावश्यक है तथा दोनों योद्धाओं की प्रतिस्पर्दा में नाटकीय सम्भावनागों का विकास नहीं हो सका है। चतुर्थ में सुन्दरक द्वारा प्रस्तुत किया गया युद्ध का विस्तृत विवरण, नाटक के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि यहां नाटकीय गति अवरुद्ध हो गयी है। युद्ध के सारे व्यापार को मंच पर उपस्थित न कराकर सुन्दरक के ही मुंह से सूचित कराया गया है। इतना विस्तृत विवरण सामाजिकों के लिए ऊब पैदा कर उनके कौतुहल को नष्ट कर देता है। अन्तिम अङ्क में चार्वाक मुनि की उपकथा का समावेश भी अनावश्यक प्रतीत होता है तथा युधिष्ठिर का भीम को दुर्योधन समझ लेना अस्वाभाविक ज्ञात होता है। इस प्रकार कथावस्तु व्यापारान्विति के अभाव के कारण शिथिल एवं विस्तृत संवादों के समावेश से गतिहीन हो गयी है । इसके युद्धों के विस्तृत वर्णन श्रव्यकाव्य की दृष्टि से अवश्य ही महत्वपूर्ण हैं, पर रंगमंच पर उनका दिखाना सम्भव नहीं है। इन सारी त्रुटियों के होते हुए भी, यह नाटक, शास्त्रीय विधान की दृष्टि से, शुद्ध एवं लोकप्रिय है। अधिकांश आचार्यों ने शास्त्रीय विवेचन में-इसे स्थान देकर, इसकी वैधानिक शुद्धता की पुष्टि की है। नाटककार ने इसमें कार्यावस्था एवं अर्थप्रकृति की सुन्दर रूप से योजना की है। बीज, विन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य ये पांच अर्थ प्रकृतियां हैं। इस नाटक का 'कार्य' या फल है द्रौपदी की वेणी का संहार या संवारना। 'वेणीसंहार' में भीम द्वारा उत्साहित युधिष्ठिर का क्रोध ही 'बीज' है और वही द्रौपदी के केश-संयमनरूप कार्य का हेतु है। इसके द्वितीय अङ्क में दुर्योधन की प्रणय-चेष्टा 'विन्दु' है क्योंकि यह प्रसङ्ग मुख्य इतिवृत्त को विच्छिन्न कर देता है, पर जयद्रथ की माता के आ जाने से पुनः उसका ध्यान युद्ध की ओर लग जाता है। तृतीय अङ्क में अश्वत्थामा का पितृ-शोक तथा विलाप एवं कर्ण के साथ वाम्मुठ पताका' है तथा सुन्दरक द्वारा किया गया युद्ध-वर्णन भी पताका की श्रेणी में बाता है। पंचम अङ्क में धृतराष्ट्र का सन्धि-प्रस्ताव एवं उसके लिए दुर्योधन को समझाना और चार्वाक राक्षस का प्रसङ्ग 'प्रकरी' के अन्तर्गत आते हैं। दुर्योधन-वध के पश्चात द्रौपदी का केश-संयमन 'कार्य' हो जाता है।
कार्यावस्था का नियोजन-इसमें पांचों अवस्थाओं आरम्भ, बस्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति एवं फलागम की सुन्दर ढंग से योजना की गयी है । प्रथम अंक में द्रौपदी केकेश-संयमन के लिए भीमसेन का दुर्योधन के रक्त से उस क्रिया को सम्पन्न करते