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उत्तररामचरित]
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[ उत्तररामचरित
राम और सीता का पुनर्मिलन अप्रत्याशित रूप से दिखाकर दर्शकों के मन में नवीन क तूहल भर दिया है। सप्तम अङ्क में वियोग में ही संयोग करा कर बहुत बड़ा कौशल प्रदर्शित किया गया है । राम और सीता का पुनर्मिलन सदाचार, नैतिकता एवं कर्तव्यनिष्ठा की विजय है जिससे दर्शकों के मन में तनाव नहीं रह पाता और वे अपूर्व सन्तोष का भाव लेकर लौटते हैं। द्वितीय और तृतीय अंक में भी कवि की चित्रण-निर्माण की पटुता दिखाई पड़ती है। इन अंकों में कथा की गति मन्द पड़ गई है और इनमें घटनात्मक स्वरा का अभाव है। पर दोनों ही अंक सीता-राम के चारित्रिक प्रस्फुटन एवं काव्यात्मक भावों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन अंकों में सोता-निर्वासन के बाद की अनेक घटनाओं; जैसे-सीता के पुत्रों की उत्पत्ति की सूचना, सीता-त्याग के बारह वर्ष व्यतीत होने की सूचना एवं राम द्वारा अश्वमेध में सीता की स्वर्ण-प्रतिमा बनाने की घटना की सूचना प्राप्त होती है ।
सभी दृष्टियों से महनीय होते हुए भी 'उत्तररामचरित' में नाट्यशास्त्रीय दृष्टि से कतिपय दोष दिखाई पड़ते हैं। पंडितों ने इसका दोषान्वेषण करते हुए जो विचार व्यक्त किया है उसका सार इस प्रकार है
'उत्तररामचरित' में नाटक की तीन अन्वितियों की अत्यन्त उपेक्षा की गयी है; वे हैं समय की अन्विति, स्थान की अन्विति तथा कार्य की अन्विति । नाटककार के लिए 'संकलनत्रय' या अन्वितित्रय पर अत्यधिक ध्यान देना आवश्यक होता है, अन्यथा उसके नाटक में बिखराव आ जायगा। इसमें काल की अन्विति पर ध्यान नहीं दिया गया है। प्रथम तथा द्वितीय अंक की घटनाओं के मध्य बारह वर्षों का अन्तराल दिखाई पड़ता है तथा शेष अंकों की घटनाएं अत्यन्त त्वरा के साथ घटती हैं। स्थान की अन्विति का भी इस नाटक में उचित निर्वाह नहीं किया गया है। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अंक की घटनाएं क्रमशः अयोध्या, पंचवटी एवं जनस्थान में घटित होती हैं तथा चतुर्थ अंक की घटनाएं वाल्मीकि आश्रम में घटती हैं । द्वितीय से चतुर्थ अंक तक के वार्तालाप नाटकीय दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। भले ही उनकी गरिमा कलात्मक समृद्धि की दृष्टि से हो। अतः फल की ओर उन्मुख होने एवं उसकी प्राप्ति की तीव्रता में इन स्थलों का औचित्य एवं उपयोगिता नगण्य है। अतः कार्यान्विति के भी विचार से इस नाटक को शिथिल माना गया है। समीक्षकों ने यहां तक विचार व्यक्त किया है कि यदि उपर्युक्त अंशों को नाटक से निकाल भी दिया जाय तो भी कथावस्तु के विकास एवं फल में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता।
इस नाटक में एक ही प्रकार की प्रकृति के पात्रों का चित्रण किया है तथा इसमें पात्रबाहुल्य का अभाव है। राम, सीता, लक्ष्मण, शम्बूक, जनक, वाल्मीकि प्रभृति सभी पात्र गंभीर प्रकृति के हैं। पात्रों में प्रकृतिगत एकरूपता के कारण दर्शकों का कौतूहल रह नहीं पाता। कवि ने न्द्वमय पात्रों के चित्रण में अभिरुचि नहीं दिखलाई है । इसके अन्य दोषों में विदूषक का अभाव, भाषा का काठिन्य एवं विलाप-प्रलापों का
आधिक्य है। इसके अधिकांश पात्र फूट-फूट कर रोते हैं और प्रधान पात्रों में भी यह दोष दिखाई पड़ता है, जो चरित्रगत उदात्तता का बहुत बड़ा दोष है। इन प्रलापों से