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[ कादम्बरी
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के विन्यास से भी मिला कर देखा जा सकता है । राजप्रासाद के शिल्प में द्वारप्रकोष्ठ सहित प्रथम कक्ष्या आती है। शुद्रक की राजसभा में वैशम्पायन सुग्गे के आने से लेकर उसके द्वारा कथा के आरम्भ तक कादम्बरी कथा की भूमिका है। इसमें कवि ने पहले शूद्रक और उसकी राजसभा का विस्तृत वर्णन, फिर सुग्गे को लेकर लक्ष्मीरूपी चाण्डाल - कन्या का आगमन और सुग्गे द्वारा कथा आरम्भ करने का वर्णन किया है । यही राजप्रासाद की भव्य तोरणद्वार युक्त प्रथम कक्ष्या है ।
कादम्बरी ]
द्वारप्रकोष्ठ में प्रविष्ट दर्शक पहली कक्ष्या पार करके दूसरी कक्ष्या में प्रवेश करता था, जहां राजभवन में बाह्यस्थान -मण्डप का निर्माण किया जाता था । विन्ध्याटवी, पम्पासर एवं जाबालि आश्रम में भगवान् जाबालि द्वारा कथा का आरम्भ दूसरी कक्ष्या के समान है । उज्जयिनी इस राजप्रासाद की तीसरी कक्ष्या है । तीसरी कक्ष्या में ही धवलगृह होता था जहाँ राजकुल के अन्तरंग दर्शन मिलते थे। वैसे ही उज्जयिनी में कथानक के अन्तरंग पात्रों के चरित्र का प्रथम दर्शन होता है । राजा तारापीड़ और रानी विलासवती का परिचय कुमार चन्द्रापीड़ का जन्म, शिक्षा, योवराज्याभिषेक और दिग्विजय यात्रा के लिए प्रयाण, ये उस तीसरी कक्ष्या में स्थित राजकुल के अन्तरंग दृश्य हैं । किन्तु वहाँ तक पहुंच कर भी दर्शक को वास्तविक अन्तःपुर के उस सुखमन्दिर का दर्शन अवशिष्ट रहता है जहाँ नायक-नायिका का एकान्त सम्मिलन होता था । वही कादम्बरी कथा-शिल्प का हेमकूट लोक है जो कैलास के उत्संग में बसा है । स्थापत्य की परिभाषा में धवलगृह के उस अन्तरंग भाग को कैलास या सुखवासी भी कहा जाता था । कादम्बरी देवलोक की अध्यात्म विभूति है । उसी की साधना के लिए चन्द्रापीड़ का जीवन समर्पित है ।" कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययनभूमिका पृ० ४-५ ।
आध्यात्मिक पक्ष का आन्तरिक स्वरूप । देवतत्त्व की लीला
अनित्य कर्मों तक सीमित है तो दूसरा
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने कादम्बरी की कथा के उद्घाटन करते हुए इसके दो उद्देश्य स्थिर किये हैं- बाह्यरूप एवं इसके बाह्यरूप का धरातल मानवी है पर आन्तरिक स्वरूप में को व्याख्या की गई है । प्रथम मानवी जीवन के नित्य रस- तत्व से संपृक्त ! 'कादम्बरी' में बाण ने अपनी अर्थवती भाषा में जीव की सर्वोच्च समस्या कामवासना तथा शुद्ध प्रेम के तारतम्य को पहचान कर उसे जीवन में प्रत्यक्ष किया है । " मानव अपनी वासना के कारण सृष्टि के ब्रह्मसूत्र से विचलित या नित्य विधान से च्युत हो जाता है । उसी की संज्ञा शाप है । तपश्चर्या से उस शाप का अन्त होता है । शाप के अन्त में पुनः उसी स्वाभाविक स्थिति, उसी उच्च स्वर्गीय पदवी, उसी भगवत्तत्त्व, उसी शिवतरव की उपलब्धि सम्भव होती है। यक्ष, यक्षपत्नी, उवंशी, पुरूरवा, शकुन्तला, दुष्यन्त, पुण्डरीक, महाश्वेता, चन्द्रापीड़, कादम्बरी सबके आध्यात्मिक जीवन की समस्या वासनामय स्नेह के अभिशाप से ऊपर उठकर नित्य अविचल प्रेमतत्व की प्राप्ति है । शाप से जब उनका छुटकारा होता है तो वे प्रेम के नित्यख प्राप्त करते हैं! वासना अनित्य है, प्रेम नित्य है । इस दृष्टि से कादम्बरी