________________
पञ्चतन्त्र ]
( २६२ )
[ पञ्चरात्र
~~
भाषा में व्यावहारिकता अधिक है और लेखक उसे जीवन के निकट ला दिया है । यत्र-तत्र विशेषणों एवं कल्पनाओं का समावेश कर इसमें काव्यात्मक प्रवाह प्रकट किया गया है, पर वहाँ भी भाषा अलंकारों के भार से बोझिल नहीं बनी है । ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ पर शास्त्रनिष्ठ, व्यवहार कुशल एवं नीतिपटु व्यक्ति का व्यक्तित्व झांकता है । इसकी मुहाबरेदार तथा सरल भाषा में विनोदप्रियता एवं व्यंग्यात्मकता झलकती रहती है । कहीं भी वाक्य विन्यास में दुरूहता एवं दुर्बोधता के दर्शन नहीं होते। लेखक ने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों - रामायण, महाभारत तथा प्राचीन नीति ग्रन्थों से सूक्तियों को लेकर अपने विचारों की पुष्टि की है । "लेखक की भाषा स्पष्टतः सुन्दर है, और विशेषरूप से पद्यों में हम परिष्कृत तथा जटिल छन्दों के साथ-साथ श्लेष तथा परिष्कृत शैली के अन्य चिह्न भी पाते हैं । कुछ पद्यों में काव्य की सरलतर शैली में प्रचलित समासों की अपेक्षा कुछ बड़े समास भी पाये जाते हैं; परन्तु ऐसे स्थल बहुत कम हैं, जहाँ अर्थ की वास्तविक जटिलता मूल ग्रन्थ में बताई जा सके । यह स्पष्ट है कि लेखक सुरुचि से युक्त था और यह समझता था कि बाल राजकुमारों के लिए अभिप्रेत रचना में भाषाशैली की अत्यधिक कृत्रिमता अनुपयुक्त है ।" संस्कृत साहित्य का इतिहास (कीथ ) हिन्दी अनुवाद पृ० ३०६३०७ | डॉ० हर्टेल ने सर्वप्रथम 'पंचतन्त्र' का सम्पादन कर हारवर्ड ओरियण्टल सीरीज संख्या १३ में प्रकाशित कराया था ।
आधारग्रन्थ – १ संस्कृत साहित्य का इतिहास - कीथ ( हिन्दी अनुवाद ) । २ संस्कृत साहित्य का इतिहास - पं० बलदेव उपाध्याय । ३ पंचतन्त्र ( मूल एवं हिन्दी अनुवाद) चौखम्बा प्रकाशन । ४ पंचतन्त्र ( केवल हिन्दी अनुवाद ) - डॉ० मोतीचन्द्र ।
पञ्चरात्र- यह महाकवि भास विरचित तीन अंकों का समवकार ( नाटक का एक प्रकार ) है । इसकी कथा 'महाभारत' के विराटपर्व पर आधृत है, पर कवि ने इसे भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है । इसकी कथा अनैतिहासिक है पर नाटककार ने अत्यन्त मौलिक दृष्टि से इसका वर्णन किया है । पञ्चरात्र की कथावस्तु अत्यन्त कौतूहलपूर्ण है । इसमें 'महाभारत' की कथा को उल्टी दिशा में मोड़ कर युद्ध को समाप्त कर दिया गया है । कविने ऐतिहासिक घटना में काफी स्वतन्त्रता दिखाई है पर वह उसे 'महाभारत' के कथानक की भाँति प्रभावोत्पादक नहीं बना सका । इसमें द्रोणाचार्य शिष्य वत्सल आचार्य के रूप में दिखाये गए हैं। इसकी कथा इस प्रकार है
प्रथम अंक --- द्यूतक्रीड़ा में पराजित होकर पाण्डव वनवास कर रहे हैं और एक वर्ष का अज्ञातवास बिताने के लिए राजा विराट् के यहाँ रहते हैं। इसी समय कुरुराज दुर्योधन यज्ञ करता है और उसके यहाँ बहुत से राजे आते हैं । यज्ञ पूर्ण समारोह के साथ सम्पन्न होता है । तदनन्तर दुर्योधन द्रोणाचार्य से दक्षिणा मांगने के लिए कहता है । द्रोणाचार्य पाण्डवों को आधा राज्य देने की दक्षिणा मांगते हैं। इस पर शकुनि उद्विम होकर ऐसा नहीं करने को कहता है । गुरु द्रोण रुष्ट हो जाते हैं पर वे भीष्म द्वारा शान्त किये जाते हैं । शकुनि दुर्योधन को बताता है कि यदि पाँच रात्रि में पाण्डव प्राप्त हो जाएँ तो इस शर्त पर यह बात मानी जा सकती हैं । द्रोणाचार्य यह शर्त मानने को