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भवभूति]
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[ भवभूति
१॥२॥१२॥ वामन का समय आठवीं शती का उत्तरार्ध या नवीं शती का चतुर्कश है। अतः भवभूति का समय सातवीं शताब्दी का अन्तिम चरण या आठवीं शताब्दी का प्रथम चरण हो सकता है।
भवभूति की तीन ही रचनाएं प्राप्त होती हैं और तीनों ही नाटक हैं-'मालतीमाधव', 'महावीरचरित' और 'उत्तररामचरित'। इनमें 'मालतीमाधव' प्रकरण है
और शेष नाटक हैं। 'मालतीमाधव' में दस अंक हैं और कथा कल्पित है। इसमें मालती एवं माधव की प्रणय-कथा वर्णित है [विशेष विवरण के लिए दे० मालतीमाधव ] | 'महावीरचरित' में सात बड़ हैं और रामायण की कथा को नाटक का रूप दिया गया है -[दे० महावीर चरित] । 'उत्तररामचरित' भवभूति का सर्वश्रेष्ठ एवं अन्तिम रचना है । इसमें सीता-निर्वासन की करुण गाथा वर्णित है। [दे० उत्तररामचरित ] । भवभूति के सम्बन्ध में विविध कवियों की उक्तियां-१-स्पष्टभावरसा चित्रः पदन्यासैः प्रवर्तिता। नाटकेषु नटनीव भारती भवभूतिना ॥ तिलकमंजरी ३०, धनपाल । २-जमनामपि चैतन्यं भवभूतेरभूद् गिरा । पावाप्यरोदीत् पार्वत्या हसतः स्म स्तनावपि ॥ हरिहर, सुभाषितावली १३ । ३-भवभूतेः सम्बन्धाद् भूधरभूरेव भारती भाति । एतस्कृतकारुण्ये किमन्यया रोदिति पावा ।। गोवर्धनाचार्य आर्यासप्तशती ३६ । स्वयं कवि की उक्ति-क-यं ब्रह्माणमियं देवी वारश्येवानुवर्तते । उत्तरं रामचरितं तत् प्रणीतं प्रयोक्यते ॥ उत्तरराम प्रथम अंकीख-पापमभ्यश्च पुनातु वधयतु च श्रेयांसि सेयं कथा । मङ्गल्या च मनोहरा च जगतो मातेव गनेव च । तामेतां परिभावयन्स्व. भिनयविन्यस्तरूपा बुधाः शब्दब्रह्मविदः कवेः परिणतप्रशस्य वाणीमिमाम् ॥२१ ।
भवभूति नाटककारों के कवि कहे जाते हैं। इन्हें कालिदास के बाद संस्कृत का सर्वोच्च नाटककार माना जाता है। इन्हें विशुद्ध नाटककार नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनकी अधिकांश रचनायें गीतिनाटयं (लिरिकल ड्रामा) हैं। अतः इनके ( नाटकों के ) अध्येतामों को इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही इनके नाटकों की समीक्षा करनी चाहिए। भवभूति की भाव-प्रवणता इनकी कला का प्राण है। इन्होंने भावमय कवित्व के समक्ष कलापक्ष के बाकर्षण को भी छोड़ दिया है। वैसे भवभूति भी कलापक्ष के मोह से टूटे हुए नहीं है, किन्तु ज्यों-ज्यों भवति की भारतीय परिपक होती गई है और जहां भाव फूट पड़ना चाहते हैं, वहां भवभूति का पाण्डित्य भी रसप्रवाह में बह निकलता है।' संस्कृत कवि-दर्शन पृ० ३८१ । भवभूति के भावपक्ष में वैविध्य एवं विस्तार दिखाई पड़ता है। ये कालिदास की भांति केबल कोमल भावों के ही कवि नहीं हैं, प्रत्युत् इन्होंने कोमल के साथ-ही-साथ गम्भीर एवं कठोर भावों का भी चित्रण किया है। विप्रलम्भ एवं करुण रस के अतिरिक्त इनकी दृष्टि वीर, रोद्र तथा बीभत्स रसों की बोर भी समानभाव से जाती है। भवभूति की शैली इनके कथन के अनुरूप है जिसके शब्दों में प्रौदि, उदारता एवं अर्थ का गौरव रहता है। यौहित्य. मुदारता च वचसां यच्चार्थतो गौरवं तच्चेदस्ति ततस्तदेवगमकं पाण्डित्यवैदग्धयोः ।। मालतीमाधव १।१० । भावानुसार भावों को मोड़ देना भवभूति की निजी विशेषता है। पत-कुहरों में गदगद नाद से प्रवाहित होती नदी का चित्र इन्होंने भाषा के माध्यम से