________________
न्याय-प्रमाण-मीमांसा]
( २५३ )
[न्याय-प्रमाण-मीमांसा
करना । सम्पूर्ण न्यायदर्शन को चार भागों में विभक्त किया गया है प्रथम भाग में प्रमाण सम्बन्धी विचार, द्वितीय में भौतिक जगत् की मान्यताएँ, तृतीय में आत्मा एवं मोक्ष सम्बन्धी कथन एवं चतुर्थ में ईश्वर सम्बन्धी विवेचन है। न्याय के सोलह पदार्थों का वर्णन
१. प्रमाण-यथार्थ ज्ञान का असाधारण कारण ही प्रमाण है। अर्थात् इसके द्वारा किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
२. प्रमेय-प्रमा के विषय प्रमेय कहे जाते हैं। अर्थात् प्रमाण के द्वारा जिनका ज्ञान हो, वे प्रमेय हैं। इनकी संख्या १२ है-आत्मा, शरीर, पंचज्ञानेन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय-गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म, जो अच्छे एवं बुरे कर्मों के कारण हो ), फल, दुःख तथा अपवर्ग।
३. संशय-एक ही धर्मी में विरुद्ध नाना धर्मों का परिज्ञान संशय कहा जाता है। यह मन की वह स्थिति है जब मन में दो या दो से अधिक विकल्प उपस्थित हो जाते हैं । जैसे—यह स्थाणु है या पुरुष ।
४. प्रयोजन-जिससे प्रयुक्त होकर व्यक्ति किसी कार्य में प्रयुक्त हो, उसे प्रयोजन कहते हैं । इसका मुख्य उद्देश्य है सुख की प्राप्ति एवं दुःख का नाश ।
५. दृष्टान्त-जो वादी एवं प्रतिवादी दोनों के एकमत्यं का विषय होता है, उसे दृष्टान्त कहते हैं। इसे सर्वसम्मत उदाहरण कहा जा सकता है जो सबको मान्य हो तथा इससे किसी कथन या युक्ति की पुष्टि हो सके। यह दो प्रकार का है-साधयंएवं वैधर्म्य।
६. सिद्धान्त-किसी दर्शन के अनुसार युक्ति-युक्त सत्य का माना जाना ही सिद्धान्त है। अर्थात् प्रामाणिक रूप से स्वीकार किये जाने वाले अर्थ को सिद्धान्त कहते हैं। इसके चार प्रकार होते हैं-सवंतन्त्र, प्रतितन्त्र, अधिकरण तथा अभ्युपगम सिद्धान्त । जो सिद्धान्त सभी शास्त्रों में मान्य हो वह सर्वतन्त्र, जो किसी विशेष शास्त्र में माना जाय, अन्य शास्त्रों में नहीं, वह प्रतितन्त्र सिद्धान्त है। अधिकरण वहां होता है जो आधारभूत ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन करे कि जिसके सिद्ध होने पर अन्य अनेक बातें स्वतः सिद्ध हो जाएं। अभ्युपगम सिद्धान्त वह है "जब अपना अभिमत न होने पर अर्थ की विशेष परीक्षा के लिए थोड़ी देर को स्वीकार कर लिया जाय।"
७. अवयव-अनुमान के एक देश को अवयव कहा जाता है। अनुमान के पांच अंग हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, अपनय तथा निगमन। ( इनका विवेचन मागे है)।
८. तक-अनिष्ट प्रसंग को तक कहते हैं। दो व्याप्ति-युक्त धर्मों में से व्याप्य को स्वीकार करने से अनिष्ट व्यापक की प्रसक्ति होना तक है। जैसे-'यदि यहाँ धड़ा होता तो भूतल की तरह दिखाई देता।
९. निर्णय-किसी विषय का निश्चित मान ही निर्णय कहा जाता है। यह निश्चयात्मक ज्ञान तथा प्रमाणों का फल है।