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भारवि ]
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में उपयुक्त शब्दावली की योजना तथा अर्थ की स्पष्टता एवं गम्भीरता के लिए भारवि प्रसिद्ध हैं । इन्होंने 'सर्वमनोरमा गिरः' कहकर इसी अभिप्राय को व्यंजित किया है । स्तुवन्ति गुर्वीनभिधेयसम्पदं, विशुद्धिमुक्तेरपरे विपश्चितः । इति स्थितायां प्रतिपूरुषं रुची सुदुर्लभाः सर्वमनोरमा गिरः || १४|५
[ भारवि
काव्य की तरह लगते हो पाता । 'किराअङ्गीभूत हैं । कवि वीरता के वातावरण
'किरातार्जुनीय' संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्यों में माना जाता है। इसमें जो आख्यान चुना गया है वह महाकाव्य की कथावस्तु के सर्वथा अनुपयुक्त है, पर कवि ने अपनी रचना-चातुरी के द्वारा इसे अठारह सर्गों में लिख कर विशालकाय काव्य का रूप दिया है। इसका विपुल विस्तार कवि की अद्दभुत वर्णन-शक्ति, उवंर मस्तिष्क एवं मौलिक उद्भावना-शक्ति का परिचायक है । महाकाव्य में जिस प्रकार की स्वाभाविक कथावस्तु का प्रवाह होना चाहिये उसका यहाँ अभाव है । प्रकृति आदि के वर्णनों का समावेश कर कवि ने कथा की क्षीणता को भरने का प्रयास किया है, पर इनके वर्णन स्वतन्त्ररूप से गुंफित मुक्तक हैं और कथा प्रसङ्ग के साथ उनका कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं तार्जुनीय' वीर - रसप्रधान महाकाव्य है तथा शृङ्गारादि रस ने वीररस की निष्पत्ति के लिए रसानुकूल वर्णों का विन्यास कर को झंकृत किया है । भीम एवं अर्जुन की उक्तियों तथा कार्य-व्यापार के द्वारा वीररस की व्यंजना हुई है । किरात वेशधारी शिव के साथ अर्जुन के मल्लयुद्ध को रूपायित करने में कवि ने वीरता का भाव भर दिया है । द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोनिधीनिवायतः । प्रसहेत रणे तवानुजान् द्विषतां कः शतमन्युतेजसः । किरात० २।२३। "कोन है शत्रुओं में से ऐसा जो दिद्विगन्तों में विख्यात, दिग्गजों और चारों समुद्रों की भांति युद्धस्थल की ओर प्रस्थान करते हुए, इन्द्र के समान पराक्रमी आपके चार कनिष्ठ भ्राताओं के पराक्रम को सहन कर सके ।" भारवि का शृङ्गार वर्णन मर्यादित न होकर ऐंद्रिक अधिक है । इनके शृङ्गार में शृङ्गाररसोचित तरलता का भाव न होकर ऐन्द्रियता का प्राधान्य है जिससे शृङ्गार रस में वासनामय चित्र अंकित हो गए हैं। इतना होने पर भी उनमें सरसता है - प्रियेऽपरां यच्छति वाचमुम्मुखी निबद्धदृष्टिः शिथिलाकुलोच्चया । समादधे नांशुकमाहितं वृथा विवेद पुष्पेषु न पाणिपल्लवम् ।। ८।१५ " बोलते हुए अपने प्रियतम के ऊपर निबद्ध दृष्टि वाली और ऊपर को मुख उठाये दूसरी स्त्री ने गाँठ के शिथिल होकर खुल जाने पर भी अपना अधोवस्त्र नहीं संभाला और न वह फूलों पर व्यथं ही प्रसारित अपने पाणि-पल्लव को जान सकी ।" प्रगल्भा नायिका की रतिविशारदता का चित्र — व्यपोहितं लोचनतो मुखानिलैरपारयन्तः किल पुष्पजं रजः । पयोधरेणोरसि काचिदुन्मनाः प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी ॥ ८ ।१९ "प्रिय को अपने नेत्र में गिरे हुए पुष्प- पराग को मुंह की हवा से निकालने में असमर्थ पाकर किसी नायिका ने उन्मत्त होकर अपने उन्नत तथा कठोर ( पुष्ट ) स्तनों के द्वारा प्रिय के वक्षःस्थल पर ( इसलिए ) जोर से मारा ( कि नायक उसकी आँख से