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भट्टि]
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[भट्टि
३६२४ श्लोक हैं। इसमें श्रीरामचन्द्र के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है। इस काव्य का प्रकाशन 'जयमंगला' टीका के साथ निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से १८८७ ई० में हुआ था। मल्लिनाथ की टीका के साथ सम्पूर्ण ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद चौखम्बा संस्कृत सीरीज से हुआ है।
भट्टि ने अपने महाकाव्य को चार खण्डों में विभाजित किया है-प्रकीणंखण्डप्रथम पांच सगं प्रकीर्ण काण्ड के नाम से अभिहित किये गए हैं। इस खण में रामजन्म से लेकर राम-वनगमन तक की कथा वर्णित है। इन खण्डों में व्याकरणिक दृष्टि से कोई निश्चित योजना नहीं दिखाई पड़ती। इनमें कवि का वास्तविक कवित्व परिदर्शित होता है। अधिकार काण्ड-६ से लेकर नवम सर्ग को अधिकार काण कहा जाता है । इनमें कुछ पद्य प्रकीर्ण हैं तथा कुछ में व्याकरण के नियमों में दुहादि ढिकमक धातु ( ६, ८-१०) ताच्छीलिककृदधिकार, (७, २५-३३ ), भावे कर्तरि प्रयोग (७,६८-७७), आत्मने पदाधिकार ( ८,७०-८४) तथा अनभिहितेऽधिकार (२, ९४-१३१ ) पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रसन्नकाण्ड-तीसरे काण का संबंध अलंकार से है। इसके अन्तर्गत दशम, एकादश, द्वादश एवं त्रयोदश सग हैं। दशम सगं में शब्दालंकार तथा अर्थालंकार के अनेक भेदोपभेदों के प्रयोग के रूप में श्लोकों का निर्माण किया गया है और एकादश तथा द्वादश में माधुयं और भाविक का एवं त्रयोदश में भाषासम संशक श्लेष-भेद का निदर्शन है। तिङन्तकाण्ड-इस काण्ड में संस्कृत व्याकरण के नौ लकारों-लिङ, लुङ्, लुट, लङ्, लट् , लिङ्, लोट, लुट, लुटका व्यवहारिक रूप में १४ से २२ वें सगं तक प्रस्तुत किया गया है और प्रत्येक लकार का वर्णन एक सगं में है।
भट्टि ने स्वयं पुस्तक-लेखन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह महाकाव्य व्याकरण के ज्ञाताओं के लिए दीपक की भांति अन्य शब्दों को भी प्रकाशित करनेवाला है। किन्तु व्याकरण-ज्ञान से रहित व्यक्तियों के लिए यह काव्य अन्धे के हाथ में रखे गए दर्पण की भांति व्यर्थ है-दीपतुल्यः प्रबन्धोऽयं शब्दलक्षण चक्षुषाम् । हस्तादर्श इवान्धानां भवेद् व्याकरणा ते ॥ २२॥२३ भट्टि ने अपने महाकाव्य में काव्योचित सरसता के अतिरिक्त व्याकरणसम्मत शब्दों का व्यावहारिक रूप से संकलन किया है । वे संस्कृत काव्यों की उस परम्परा का अनुवर्तन करते हैं जिसमें कवित्व तथा पाण्डित्य का सम्यक् स्फुरण है। 'रावणवध' में काव्य की सरसता का निर्वाह करते हुए पाण्डित्य का भी प्रदर्शन किया गया है। कवि ने अपने काव्य के सम्बन्ध में स्वयं दर्पोक्ति की है कि यह व्याख्या के द्वारा सुधी लोगों के लिए बोधगम्य हो सकता है पर व्याकरणज्ञान से रहित व्यक्ति तो इसे समझ नहीं सकते। व्याख्यागम्यमिदं काव्यमुत्सवः सुधियामलम् । हतादुर्मेधसाश्चास्मिन् विद्वत्प्रियतया तया ॥ २॥३४२ यद्यपि इस काम्य का निर्माण व्याकरण की रीति से किया गया है तथापि इसमें काव्य-गुणों का पूर्ण समावेश है। कवि ने पात्रों के चरित्र-चित्रण में उत्कृष्ट कोटि की प्रतिभा का परिचय दिया है। इसमें महाकाव्योचित सभी तत्वों का सुन्दर निबन्धन है । पुस्तक के कितने पात्रों के भाषण बड़े ऊंचे दर्जे के हैं और उनमें काव्यगत गुणों एवं भाषण सम्बन्धी विषेषताबों का