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धर्मसूत्र]
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[ध्वन्यालोक
१६८४ से १७१० ई. के आसपास है। इनके गुरु का नाम रामभद्र दीक्षित था तथा ये उनके ही परिवार से सम्बद्ध थे। इस चम्पू में तंजोर के शासक शाहजी की जीवनकथा वर्णित है। इसमें चार स्तबक हैं । यह काव्य अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण तंजोर कैटलाग ४२३१ में प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भ में श्रीरामचन्द्र की स्तुति है
विबुधकुलसमृद्धिः सुस्थिरा येन क्लुप्ता प्रणमदभयदाने यस्य दीक्षा प्रतीता।। जनकनृपतिकन्याधन्यपाश्वः स देवः सहजिनरपतीन्दोः श्रेयसे भूयसेऽस्तु ॥१॥
आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
धर्मसूत्र-इन्हें कल्प का अंग, माना जाता है [दे० कल्प] । धर्मसूत्रों का सम्बन्ध आचार-नियमों से था अतः आर्य लोग इन्हें प्रमाण स्वरूप मानते थे। वय॑विषय एवं प्रकरण की दृष्टि से धर्मसूत्रों का गृह्यसूत्रों से अत्यन्त नैकट्य दिखाई पड़ता है। इनमें विवाह, संस्कारों, विद्यार्थियों, स्नातकों, श्राद्ध तथा मधुपकं आदि का विवेचन है। धर्मसूत्रों में गृह्यजीवनविषयक संस्कारों की चर्चा बहुत अल्प परिणाम में हुई है किन्तु इनका मुख्य लक्ष्य आचार, विधि-नियम एवं क्रियासंस्कारों की चर्चा करना था। प्रसिद्ध धर्मसूत्र हैं-'गौतमधर्मसूत्र', 'बौधायनधर्मसूत्र', 'आपस्तम्बधर्मसूत्र', 'हिरण्यकेशिधर्मसूत्र', 'वसिष्ठधर्मसूत्र', 'विष्णुधर्मसूत्र', 'हारीतधर्मसूत्र' तथा 'शंखधर्मसूत्र'। इनमें से अन्तिम दो को छोड़ कर सभी का प्रकाशन हो चुका है। कुमारिलभट्ट के 'तन्त्रवात्तिक' में विभिन्न वेदों के धर्मसूत्रों का उल्लेख है । 'गौतमधर्मसूत्र' का सामवेदी लोग अध्ययन करते थे, 'वसिष्ठधर्मसूत्र' ऋग्वेदी लोगों के अध्ययन का विषय था, शंखकृत धर्मसूत्र का अध्ययन 'वाजसनेयी संहिता' के अनुयायियों द्वारा होता था एवं आपस्तम्ब और बौधायनधर्मसूत्रों को तैत्तिरीय शाखा के अनुयायी पढ़ा करते थे। ___ध्वन्यालोक-ध्वनिसम्प्रदाय ( काव्यशास्त्रीय सम्प्रदाय ) का प्रस्थान ग्रन्थ । इसके रचयिता आ० आनन्दवर्धन हैं [ दे० आनन्दवर्धन ] । 'ध्वन्यालोक' भारतीय काव्यशास्त्र का युगप्रवर्तक ग्रन्थ है जिसमें ध्वनि को सार्वभौम सिद्धान्त का रूप देकर उसका सांगोपांग विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ चार उद्योतों में विभक्त है और इसके तीन भाग हैं-कारिका, वृत्ति एवं उदाहरण । प्रथम उद्योत में ध्वनि सम्बन्धी प्राचीन आचार्यों के मतं का निर्देश करते हुए ध्वनि विरोधी तीन सम्भाव्य आपत्तियों का निराकरण किया गया है। इसी उद्योत में ध्वनि का स्वरूप बतलाकर उसे काव्य का एकमात्र प्रयोजक तत्व स्वीकार किया गया है और बतलाया गया है कि किसी भी काव्यशास्त्रीय-अलंकार, रीति, वृत्ति, गुण आदि-सम्प्रदाय में धनि का समाहार नहीं किया जा सकता प्रत्युत् उपर्युक्त सभी सिनाम्ख ध्वनि में ही समाहित किये जा सकते हैं। द्वितीय उद्योत में ध्वनि के भेदों का वर्णन तथा इसी के एक प्रकार असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य के अन्तर्गत रस का निरूपण है। रसबदकार एवं सध्वनि का पार्थक्य प्रदर्शित करते हुए गुण एवं अलंकार का स्वरूप-निदर्शन