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तरंगिणी ७५१०९७] कल्हण के इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इनका जन्मस्थान परिहारपुर था तथा ये स्वयं बौद्ध न होने पर भी बौद्धधर्म का आदर करते थे। राजा हर्ष की मृत्यु के पश्चात् कनक वाराणसी चले गए और वहीं पुण्य कार्य में लग गए । [ राज० ८।१२] कल्हण जाति के शैव ब्राह्मण थे। इसकी पुष्टि राजतरंगिणी के प्रत्येक तरंग में अर्धनारीश्वर शिव की वन्दना से होती है । कल्हण का वास्तविक नाम कल्याण था तथा वे अलकदत्त नामक किसी पुरुष के आश्रय में रहते थे। इन्होंने सुस्सल के पुत्र राजा जयसिंह के राज्यकाल में ( ११२७-११५९ ई०) राजतरंगिणी का प्रणयन किया था। इस ग्रन्थ का लेखन दो वर्षों में हुआ था-११४८-११५०६०।
कल्हण शैवमतानुयायी होते हुए भी बौद्धधर्म के अहिंसातत्वपूर्ण प्रशंसक थे। इन्होंने बौद्धों की उदारता, अहिंसा एवं भावनाओं की पवित्रता की अत्यधिक प्रशंसा की है। राजा के गुणों की ये बोधिसत्त्व से तुलना करते हैं
बोधिसत्त्वोऽसि भूपाल कोऽपि सत्त्वोजितव्रतः । कारुण्यं प्राणिषु दृढं यस्येहक्ते महात्मनः ।। राज० १११३४ लोके भगवतो लोकनाथादारभ्य केचन ।
ये जन्तवो गतक्लेशा बोधिसत्त्वानवेहि तान् ॥ ११६३८ 'श्रीकण्ठचरित' में कल्हण की प्रशस्ति प्राप्त होती है
श्रीमानलकदत्तोऽयमनल्पं काव्यशिल्पिषु । स्वपरिश्रमसर्वस्वन्याससभ्यममन्यत ॥ २५७८ तथोपचस्करे येन निजवाङ्मयदर्पणः । विलणप्रौढिसंक्रान्ती यथायोग्यत्वमग्रहीत् ॥ २५॥७९ तत्तबहुकथाकेलिपरिश्रमनिरङ्कशम् ।
तं प्रश्रयप्रयत्नेन कल्याण सममीमनत् ॥ २१८० कल्हण की एकमात्र रचना राजतरंगिणी प्राप्त होती है जिसमें कवि ने अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर बारहवीं शताब्दी तक काश्मीर का इतिहास लिखा है। यह महाकाव्य आठ तरंगों में विभक्त है। इसमें कवि ने ऐतिहासिक शुद्धता एवं रचनात्मक साहित्यिक कृति दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति की है। कवि ने ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण कई स्रोतों से ग्रहण कर इसे पूर्ण बनाया है। विशेष विवरण के लिए [दे० राजतरंगिणी] ।
कल्हण का व्यक्तित्व एक निष्पक्ष एवं प्रौढ़ ऐतिहासिक का है। राजतरंगिणी के प्रारम्भ में कवि ने यह विचार व्यक्त किया है कि 'वही श्रेष्ठ-बुद्धि कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के वाक्य की भांति, अतीत का चित्रण करने में घृणा अथवा प्रेम की भावनाओं से मुक्त होते हैं।' 'श्लाघ्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता । भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती ॥ ११७ कल्हण ने इतिहास के वर्णन में इस आदर्श का पूर्णतः परिपालन किया है। राजतरंगिणी के वर्णनों, प्रयोगों तथा उपमाओं आदि के पर्यवेक्षण से यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि कल्हण ने अपने अनेक पूर्ववर्ती लेखकों की रचनाओं एवं महाकाव्यों का अध्ययन किया था एवं उनसे सामग्री