________________
राजशेखर
( ४६३ )
[ राजशेखर
किया है । यद्यपि इसका भी प्रारम्भ पौराणिक है, पर आगे चल कर इतिहास का रूप मिलने लगा है । ६०० ई० से लेकर ८५५ ई० तक दुर्लभवर्धन से अनङ्गपीड़ तक के राजाओं का इसमें वर्णन है । इस वंश का नाश सुखवर्मा के पुत्र अवन्तीषर्मा द्वारा पराजित होने के बाद हो जाता है। पांचवीं तरङ्ग से वास्तविक इतिहास प्रारम्भ होता है, जिसका प्रारम्भ अवन्तीवर्मा के वर्णन से होता है । ६ ठी तरङ्ग में १००३ ई० तक का इतिहास वर्णित है जिसमें रानी दिद्दा तक का वर्णन है । सातवीं तरङ्ग का प्रारम्भ रानी दिद्दा के भतीजे से होता है जिससे लोहर वंश का प्रारम्भ हुआ । इस तरङ्ग में १००१ ई० तक की घटनाएं १७३९ पद्यों में वर्णित हैं । कवि राजा हर्ष की हत्या तक का वर्णन इस सगं में करता है अन्तिम तरङ्ग अत्यन्त विस्तृत है तथा इसमें ३४४९ पद्य हैं । इसमें कवि उच्छल के राज्यारोहण से लेकर अपने समयतक की राजनीतिक स्थिति का वर्णन करता है। इस विवरण से ज्ञात होता है कि 'राजतरङ्गिणी' में कवि ने अत्यन्त लम्बे काल तक की घटनाओं का विवरण दिया है । इसमें सभी विवरण अशुद्ध एवं काल्पनिक हैं तथा उनमें निराधार कल्पना एवं जनश्रुति को आधार बनाया गया है । पर, , जैसे- जैसे वे आगे बढ़ते गए हैं. उनके विवरणों में ऐतिहासिक तथ्य आ गए हैं और कवि वैज्ञानिक ढंग से इतिहास प्रस्तुत करने की स्थिति में आ गया है । ये विवरण पौराणिक एवं काल्पनिक न होकर विश्वसनीय एवं प्रामाणिक हैं ।
।
[ हिन्दी अनुवाद सहित राजतरङ्गिणी का प्रकाशन पण्डित पुस्तकालय, वाराणसी से हो चुका है ] ।
राजशेखर -- संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यशास्त्री । इनका जीवनवृत्त अन्य साहित्यकारों की भांति धूमिल नहीं है । इन्होंने अपने नाटकों की प्रस्तावना में विस्तारपूर्वक अपनी जीवनी प्रस्तुत की है। ये महाराष्ट्र की साहित्यक परम्परा से विमण्डित एक ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए थे। इनका कुल मायावर के नाम से विख्यात था । कीथ ने भ्रमवश इन्हें क्षत्रिय मान लिया है। इनकी पत्नी अवश्य ही, जोहान कुलोत्पन्न क्षत्रिय थीं, जिनका नाम अवन्तिसुन्दरी था। ये प्राकृत तथा संस्कृत भाषा की विदुषी एवं कवयित्री थीं। राजशेखर ने अपने साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा' में 'पाक' के प्रकरण में इनके मत का आख्यान किया है । राजशेखर कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रपाल एवं महीपाल के राजगुरु थे । प्रतिहारवंशी शिलालेखों के आधार पर महेन्द्रपाल का समय दसवीं शती का प्रारम्भिक काल माना जाता है, अतः राजशेखर का भी यही समय है । उस युग में राजशेखर के पाण्डित्य एवं काव्यप्रतिभा की सर्वत्र तूती बोलती थी और वे अपने को वाल्मीकि, भर्तृमेष्ठ तथा भवभूति के अवतार मानते थे । बभूव वल्मीकिभवः कविः पुरा ततः प्रपेदे भुवि भर्तृमेष्ठताम् । स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः ॥ बालभारत । इनके सम्बन्ध में सुभाषित संग्रहों तथा अनेक ग्रन्थों में जो विचार व्यक्त किये गए हैं उनकी यहाँ उधृत किया जा रहा है - १. यायावरः प्राज्ञवरो गुणज्ञैराशंसितः सूरिसमाजवर्यैः । नृत्यत्युदारं भणिते गुणस्था नटी वयस्योढरसा पदश्रीः ॥ 'सोढल'। २. पातुं कर्णरसायनं