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मायाधर भट्ट ]
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[ आशाधर भट्ट
के
भी रचना की है । इनके दोनों ही ग्रंथ आज उपलब्ध हैं । इन्होंने सूर्यं तथा तारों को स्थिर मानते हुए पृथ्वी घूमने से रात-दिन होने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । इनके अनुसार पृथ्वी की परिधि ४९६७ योजन है । इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'आर्यभटीय' की रचना पटना में हुई थी। इसमें श्लोकों की संख्या १२१ है और ग्रन्थ चार भागों में विभक्त है - गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद एवं गोलपाद । 'आर्यभटीय' पर संस्कृत में चार टीकाएँ प्राप्त होती हैं-भास्कर, सूर्यदेव यज्वा परमेश्वर एवं नीलकण्ठ की। इनमें सूर्यदेव यज्वा की टीका सर्वोत्तम मानी जाती है जिसका नाम 'आर्यभट्ट - प्रकाश' है । इसका अंगरेजी अनुवाद डाक्टर कनं ने १८७४ ई० में लाइडेन (हालैण्ड) में प्रकाशित की थी । 'आर्यभटीय' का हिन्दी अनुवाद श्री उदयनारायण सिंह ने संवत् १९६३ में किया था । इस ग्रंथ में आर्यभट्ट ने चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का विवेचन किया है ।.
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आधारग्रन्थ - १. भारतीय ज्योतिष - डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री २. भारतीय ज्योतिष का इतिहास - डॉ० गोरख प्रसाद ३. हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास - श्री विभूतिभूषणदत्त तथा अवधेश नारायण सिंह ( हिन्दी अनुवाद, हिन्दी समिति )
आशाधर भट्ट - काव्यशास्त्र के आचार्य । संस्कृत अलंकारशास्त्र ( काव्यशास्त्र ) के इतिहास में दो आशाधर नामधारी आचार्यों का विवरण प्राप्त होता है । प्रथम का पता डॉ० पीटरसन ने १८८३ ई० में एवं द्वितीय का पता डॉ० बूलर ने १८७१ ई० में लगाया था । नाम सादृश्य के कारण विद्वानों ने ( डॉ० हरिचन्द शास्त्री ) दोनों को एक ही लेखक मान लिया है, पर दोनों ही भिन्न हैं । प्राचीन आशाधर व्याघ्रेरवाल वंशीय थे और आगे चल कर जैन हो गए थे । इनका जन्मस्थान अजमेर और पिता का नाम लक्षण था। इन्होंने अनेक जैन ग्रन्थों की रचना की है और रुद्रट के 'काव्यालंकार' की टीका भी लिखी है । इनका समय १३ वीं शताब्दी है । इन्होंने 'त्रिषष्टिस्मृति- चन्द्रिका' नामक ग्रन्थ का रचनाकाल १२३६ ई० दिया है ।
द्वितीय आशाधर भट्ट का समय १७ बीं शताब्दी का अन्तिम चरण है । इनके पिता का नाम रामजी एवं गुरु का नाम धरणीधर था । इन्होंने 'अलंकारदीपिका' में अपना परिचय दिया है
शिवयोस्तनयं नत्वा गुरुं च धरणीधरम् । आशाधरेण कविना रामजीभट्टसूनुना ॥
आशाधर ने कुवलयानन्द की टीका लिखी है, अतः ये उसके परवर्ती सिद्ध होते हैं । इनके अलंकारशास्त्रविषयक तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं
कोविदानन्द, त्रिवेणिका एवं अलंकारदीपिका । कोविदानन्द अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण 'त्रिवेणिका' में प्राप्त होता है । इसमें वृत्तियों का विस्तृत विवेचन किया गया था । त्रिवेणिका के प्रथम श्लोक से ही इस तथ्य की पुष्टि होती हैप्रणम्य पार्वतीपुत्रं कोविदानन्दकारिणा । आशाधरेण क्रियते पुनर्वृत्तिविवेचना ॥ डाक्टर भण्डारकर ने कोविन्दानन्द के एक हस्तलेख की सूचना दी है जिसमें निम्नोक्त श्लोक है-