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भतृ मेष्ठ ]
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[ भतृमेष्ठ
'त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र' तथा 'प्रमेयरत्नाकर' । इस चम्पू में ऋषभदेव के पुत्र भरत के चरित्र को आधार बनाकर उनकी कथा कही गयी है ।
भर्त्तृमेण्ठ – ये 'हयग्रीववध' नामक महाकाव्य के रचयिता हैं जो अभी तक अनुपलब्ध है । इसके श्लोक क्षेमेन्द्र विरचित 'सुवृत्ततिलक', भोजकृत 'सरस्वतीकण्ठाभरण' एवं 'शृङ्गारप्रकाश' तथा 'काव्यप्रकाश' प्रभृति रीतिग्रन्थों तथा सूक्तिग्रन्थों में उद्धृत किये गये हैं । इनका विवरण कल्हण की 'राजतरङ्गिणी' में है । कहते हैं कि मेष्ठ हाथीवान् थे [ मेष्ठ शब्द का अर्थ भी महावत होता है ] । लोगों का अनुमान है कि ये महावत थे, किन्तु विलक्षण प्रतिभा के कारण महाकवि बन गए। इनके आश्रयदाता काश्मीरनरेश मातृगुप्त थे । इनका समय पांचवी शताब्दी है । सूक्तिग्रन्थों में कुछ पच 'हस्तिपक' के नाम से उपलब्ध होते हैं जिन्हें विद्वानों ने भर्तृमेष्ठ की ही रचना स्वीकार किया है । इनकी प्रशंसा में धनपाल का एक श्लोक मिलता है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी महावत के अंकुश की चोट खाकर बिना सिर हिलाये नहीं रह सकता उसी प्रकार भर्तृमेष्ठ की वक्रोक्तियों का श्रवण कर सहृदय भी आनन्द से विह्वल होकर सिर हिलाये बिना नहीं रहता । वक्रोक्त्या मेण्ठराजस्य वहन्त्या सृणिरूपताम् | अविद्धा इव धुन्वन्ति मूर्धानं कविकुञ्जराः ॥ 'राजतरंगिणी' में कहा गया है कि 'हयग्रीववध' काव्य की रचना करने के पश्चात् भर्तृमेष्ठ किसी गुणग्राही राजा को खोज में निकले और काश्मीरनरेश मातृगुप्त की सभा में आकर उन्होंने अपनी मनोहर कविता सुनाई । काव्य की समाप्ति होने पर भी राजा ने उसके गुण-दोष के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। राजा के इस मोनालम्बन से कवि को अत्यन्त दुःख हुआ और वे अपना काव्य वेष्टन में बांधने लगे । इस पर राजा ने पुस्तक के नीचे सोने की थाल इस भाव से रख दी कि कहीं काव्य-रस पृथ्वी पर न जाय । राजा की इस सहृदयता एवं गुणग्राहिता से भर्तृमेष्ठ अत्यन्त प्रसन्न हुए और इसे उन्होंने अपना सत्कार माना तथा राजा द्वारा दी गई सम्पत्ति को पुनरुता के सदृश समझा [ राजतरङ्गिणी ३ । २६४-२६६ ] । मम्मटाचार्य ने 'काव्यप्रकाश' के रसदोष के अन्तर्गत ( सप्तम उक्लास में ) 'अङ्गस्याप्यतिविस्तृतिः' नामक दोष 'उदाहरण में 'हयग्रीववध' को रखा है। इस दोष के अनुसार महाकाव्य में मुख्य पात्र का विस्तार के साथ वर्णन होना चाहिये, परन्तु अमुख्य पात्र का विस्तार करने पर साहित्यिक दृष्टि से दोष उपस्थित हो जायगा । 'हयग्रीववध' में नायक विष्णु हैं ( अजी हैं), किन्तु प्रतिनायक या अङ्ग का विस्तारपूर्वक वर्णन होने के कारण इसमें उक्त दोष आ गया है । क्षेमेन्द्र के अनुमान से 'हयग्रीवबध' का प्रथम श्लोक निम्नांकित है— आसीद् दैत्यो हयग्रीवः सुहृद्वेष्मसु यस्य ताः । प्रथयन्ति बलं बाह्वोः सितच्छत्रस्मिताः श्रियः ॥ मेष्ठ के सम्बन्ध में अनेक कवियों की प्रशस्तिया प्राप्त होती हैं- इह कालिदास - भतृमेष्ठावत्रामररूपसूरभारवयः । हरिश्चन्द्रगुप्ती परीक्षिताविह विद्यालायाम् || 'काव्यप्रकाश' में 'हयग्रीववध' के श्लोक प्राप्त होते हैं । एक श्लोक उद्धृत -विनिंग तंमानदमात्ममन्दिरात्भवत्युपश्रुत्य सहच्छयपि यम् ।