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दण्डी ]
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[ दण्डी
अपेक्षा कम अलंकृत एवं श्लेष वक्रोक्ति अलंकारों से बोझिल न होकर प्रसाद गुण युक्त है । यदि दण्डी बाण के परवर्ती होते तो उनकी शैली भी निश्चित रूप से अलंकृत होती । दूसरी बात यह है कि 'दशकुमारचरित' में जिस समाज का चित्रण किया गया है वह हर्षवर्धन के पूर्व भारत से सम्बद्ध है । उन्होंने गुप्त साम्राज्य के ह्रासोन्मुख होने के कारण भारतीय समाज में व्याप्त अव्यवस्था एवं स्वच्छन्दता का चित्रण किया है | अतः वे निश्चित रूप से हर्षवर्धन के पूर्ववर्ती हैं और इस दृष्टि से उनका समय ६०० ईस्वी के आस पास निश्चित होता है ।
'काव्यादर्श' अलंकार ग्रन्थ है । 'दशकुमारचरित' में आठ कुमारों की रोचक कथा वर्णित है । [ दे० दशकुमार चरित ] इस समय प्राप्त होने वाले 'दशकुमारचरित' में दो पीठिकाएँ हैं - पूर्व पीठिका एवं उत्तरपीठिका | पूर्व पीठिका में पांच उच्छ्वास हैं और आठ उच्छ्वासों में पुनः कथा का वर्णन है । उत्तरपीठिका पांच या छह पृष्ठों की है । पूर्वपीठिका के सम्बन्ध में विद्वानों का कहना है कि यह दण्डी की रचना न होकर परवर्ती जोड़ है तथा इसका मंगलाचरण 'ब्रह्माण्डच्छत्रदण्ड : ' भी दण्डी कृत नहीं है । पूर्वपीठिका के इस रूप को ग्यारहवीं शताब्दी से प्राचीन माना जाता है क्योंकि यही श्लोक भोज रचित 'सरस्वती कण्ठाभरण' में भी प्राप्त होता है । पूर्वपीठिका की शैली कृत्रिम है और उस पर बाणोत्तर काल की ह्रासोन्मुखी काव्यशैली का प्रभाव है । इसकी शैली में शाब्दी एवं आर्थी क्रीड़ा का संघात दिखाई पड़ता है । दण्डी रचित मूल 'दशकुमारचरित' में राजवाहन एवं उनके सात साथियों की कथा है । पूर्वपीठिका एवं उत्तरपीठिका के दृष्टिकोण में भी अन्तर दिखाई पड़ता है । 'दशकुमारचरित' का ष्टकोण यथार्थवादी है किन्तु पूर्वपीठिका में आदर्शवादी दृष्टि अपनायी गयी है । पूर्वपीठिका में देवता यज्ञादि का उपयोग करते हैं तथा ब्राह्मण पृथ्वी के देवता कहे गए हैं । इसके सभी पात्र कत्र्तव्य कर्म पर विश्वास न कर अपने को दैवाधीन मानते हैं । इसमें अनेक अतिमानवीय घटनाओं एवं शापादि के कारण होने वाले भयंकर परिवत्र्तनों का वर्णन है । किन्तु दण्डी रचित कथाभाग में चारित्रिक विकास पर अधिक बल दिया गया है । इस प्रकार की भिन्नताओं के कारण 'दशकुमारचरित' काठका वाला अंश दण्डी कृत नहीं माना जाता । दण्डी को भाषा पर असाधारण अधिकार है । उन्होंने आख्यान का सरल एवं सुबोध वर्णन करते हुए भाषागत दोष पर पूर्ण रूप से ध्यान दिया है । पात्रों के कथनों एवं भाषणों में उन्होंने भाषा सम्बन्धी जटिलता एवं दुरूहता तथा विस्तार के दोष से अपने को दूर रखा है । किसी विषय का वर्णन करते समय वे मुख्यतः वैदर्भी रीति को अपनाते हुए पदलालित्य में सबों को पीछे छोड़ देते हैं । वर्णनों में उनकी प्रतिभा प्रदर्शित होती है और भाषा पर अपूर्व अधिकार दिखाई पड़ता है । विषयानुसार भाषा को परिवर्तित कर देना दण्डी की अपनी विशेषता है । अभिव्यक्ति की यथार्थता एवं अर्थ की स्पष्टता पर भी उनका ध्यान गया है और कर्णकटु ध्वनियों एवं शब्दाडम्बर से भी वे अपने को बचाते हैं । उन्होंने प्रकृतिका भी मनोरम चित्र अंकित किया है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त का