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मृच्छकटिक ]
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[मृच्छकटिक
उसमें आत्म-सम्मान का भाव पूर्णरूप से भरा हुआ है। वह कलंकित होने से डरता है, किन्तु मृत्यु से नहीं डरता। 'न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः । विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमो भवेत् ॥ १०॥२७ । वह धार्मिक प्रकृति का व्यक्ति है तथा नित्य पूजन एवं समाधि में निरत रहता है । विदूषक द्वारा देवपूजा में अश्रता प्रकट करने पर वह उसे कहता है कि यह गृहस्थ का धर्म नहीं-बयस्य ! मा मैवम् । गृहस्थस्य नित्योऽयं विधिः।' इस प्रकरण का नायक होते हुए भी चारुदत्त का प्रत्यक्ष रूप से इसकी घटनाओं पर नियंत्रण नहीं है। वह प्रेम के भी क्षेत्र में निष्क्रिय-सा रहता है। वह गंभीर एवं चिन्तनशील प्रवृत्ति का व्यक्ति है और दरिद्रता ने ही उसे दरिद्रता का दार्शनिक बना दिया है। उसने निधनता के जिस दर्शन का निरूपण किया है, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती है। "निधनता से लज्जा होती है, लज्जित मनुष्य तेजहीन हो जाता है, निस्तेज लोक से तिरस्कृत होता है, पुनः तिरस्कार के द्वारा विरक्त हो जाता है, वैराग्य होने पर शोक उत्पन्न होता है। शोकातुर होने से बुद्धि क्षीण हो जाती है, फिर बुटिहीन होने पर सर्वनाश की अवस्था आ जाती है-अहो! दरिद्रता सभी आपत्तियों की जड़ है।' 'सखे ! निर्धनता ही मनुष्यों की निन्ता का आश्रय है ! शत्रुओं के अपमान का स्थान, दूसरा शत्रु, मित्रों का पुणापात्र तथा आत्मीयजनों के वर का कारण है। दरिद्र की घर छोड़कर बन में चले जाने की इच्छा होती है। यहां तक कि उसे स्त्री का भी अपमान सहना पड़ता है। और कहाँ तक कहूँ हृदयस्थित शोकामि एक बार ही जला नहीं डालती किन्तु घुला-घुला कर मारती है।'
वह धर्म-परायण होने के कारण भाग्यवादी भी है । वह शकुनों में विश्वास करता है, क्योंकि ये मनुष्य के भाग्य को रहस्यमय ढंग से नियन्त्रित करते हैं। वह अपनी निर्धनता का मुख्य कारण भाग्य को मानता है-'भाग्यक्षयपीडितां दशां नरः।' न्यायालय में विदूषक की अनवधानता के कारण आभूषण के गिर जाने को भी वह भाग्य का ही खेल स्वीकार करता है-'अस्माकं भाग्यदोषात् पतितः पातयिष्यति ।' प्रेमी के रूप में उसका व्यक्तित्व नियन्त्रित है। वह प्रेम करता है किन्तु प्रेमिल भावनाओं के आवेश में नहीं आता। वसन्तसेना से प्रेम करते हुए भी अपनी पत्नी धूता से उदासीन नहीं रहता। उसमें चारित्रिक दृढ़ता भी पायी जाती है। अन्य स्त्री से अपने वस्त्र का स्पर्श होने से वह खेद प्रकट करता है-'अविज्ञातावसक्तेन दूषिता मम वाससा' । वसन्तसेना के प्रति उसका आकर्षण स्वाभाविक न होकर परिस्थितिजन्य है। वास्तविकता यह है वसन्तसेना ही उसकी ओर आकृष्ट है और इसीलिए चारुदत्त उसकी ओर आकृष्ट होता है। वसन्तसेना के प्रति उसका अन्ध-प्रेम नहीं दिखाई पड़ता, अपितु कर्तव्य-बुद्धि से परिचालित है। वह अपनी पत्नी की चारित्रिक उदारता से प्रभावित है, और इसके लिए उसे गर्व है । वह उसे विपत्ति की सहायिका मानता है और वसन्तसेना के आभूषण के बदले रत्नमाला प्राप्त कर हर्षित हो जाता है-'नाहं दरिद्रः यस्य मम विभवानुगता भार्या ।' वसन्तसेना के रहते हुए भी उसके प्राणदण की सूचना प्राप्त कर चितारोहण करनेवाली धूता को बचाने के लिए दौड़ पड़ता है। इससे ज्ञात होता है कि वसन्तसेना