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परवाम्बिका परिणयचम्पू]
( ४८४ )
[वक्रोक्तिजीवित
महाकवि भारवि रचित 'किरातार्जुनीय' महाकाव्य के आधार पर हुई है। यह एकांकी ध्यायोग है। ३. हास्यचूड़ामणि-यह एक अंक का प्रहसन है । ४. रुक्मिणीहरण'महाभारत' की कथा के आधार पर इसकी रचना है । यह चार अंकों वाला ईहामृग है। ५. त्रिपुरदाह-इसमें भगवान् शंकर द्वारा त्रिपुरासुर की नगरी के ध्वंस होने का वर्णन है। यह चार अंकों का डिम है । ६. समुद्रमंथन-इसमें देवता एवं दानवों द्वारा समुद्रमंथन की कथा प्रस्तुत की गई है । अन्ततः चौदह रत्नों के प्राप्त करने पर विष्णु तथा लक्ष्मी के विवाह का वर्णन किया गया है। यह तीन अंकों का समवकार है । वत्सराज की शैली अत्यन्त सरस एवं मधुर है। स्थान-स्थान पर दीर्घसमास एवं दुरूह शैली का भी प्रयोग किया गया है। इनके रूपकों में क्रियाशीलता, रोचकता तथा घटनाओं की प्रधानता स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है ।' संस्कृत नाटककार पृ. २०३ ।
वरदाम्बिका परिणयचम्पू-इस चम्पूकाव्य की रचयिता तिरुलम्बा नामक कवयित्री हैं जो विजयनगर के महाराज अच्युतराय की राजमहिषी थीं। इसका रचनाकाल १५४० ई० के आसपास है । अच्युतराय का राज्यकाल १५२९ से १५४२ ई. तक है। इस चम्पू काव्य की कथा विजयनगर के राजपरिवार से सम्बद्ध है और अच्युतराय के पुत्र चिन वेकटाद्रि के युवराज पद पर अधिष्ठित होने तक है। कवयित्री ने इतिहास और कल्पना का समन्वय करते हुए इस काव्य की रचना की है। इसकी कथा प्रेमप्रधान है और भाषा पर लेखिका का प्रगाढ़ आधिपत्य दिखाई पड़ता है। इसमें संस्कृत गद्य की समासबहुल एवं दीर्घसमास की पदावली प्रयुक्त हुई है। दीर्घसमासवती गद्यरचना के साथ-ही-साथ मनोरम एवं सरस पद्यों की रचना इस चम्पू को प्राणवन्त बनाने में पूर्ण समर्थ है। गद्यभाग की अपेक्षा इसका पद्यभाग अधिक सरस एवं कमनीय है और उसमें लेखिका का कल्पना-वैभव प्रदर्शित होता है । अलंकारों का प्राधुर्य, शाब्दी क्रीड़ा, वर्णन-सौन्दर्य एवं कथावस्तु का विकास आदि का रासायनिक संमिश्रण इस काव्य में है। भावानुरूप भाषा में सर्वत्र परिवर्तन दिखाई पड़ता है। 'सततलिलवसतिजनितजडिमहरणकरणतरणिकिरणपरिचरणपरजलमानवमाणवकारोहाबरोहसन्दितपुरन्दर ऊर्मिसन्ततिम्' । कावेरी के इस दृश्यचित्रण में कोमलकान्त पदावली संगुंफन दिखाई पड़ता है। मैं० लक्ष्मणस्वरूप द्वारा सम्पादित होकर यह ग्रन्थ लाहौर से प्रकाशित हुआ था। इसका हस्तलेख तंजौर पुस्तकालय में है। .. आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ० छविनाथ पाण्डेय ।
वक्रोक्तिजीवित-यह वक्रोक्ति सिद्धान्त का प्रस्थान ग्रन्थ है जिसके रचयिया बाचायं कुन्तक हैं [ दे० कुन्तक ] । यह अन्य चार उन्मेष में विभक्त है तथा इसके तीन भाग हैं-कारिका, वृत्ति और उदाहरण । कारिका एवं वृत्ति की रचना स्वयं कुन्तक ने की है और उदाहरण विभिन्न पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं से लिए गए हैं । इसमें कारिकाओं की कुल संख्या १६५ है (५+३+४६+२६)। प्रथम उन्मेष में काव्य के प्रयोजन, काव्यलक्षण, वक्रोक्ति की कल्पना, उसका स्वरूप एवं छह भेदों का वर्णन है। इसी उन्मेष में बोज, प्रसाद, माधुर्य, लावष्य एवं भाभिजात्य गुणों का निरूपण