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निम्बार्क मत]
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[निम्बार्क मत
निम्बार्क मत-द्वैताद्वैतवाद नामक प्रसिद्ध वैष्णव सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य निम्बार्क थे। इनका समय १२ वीं शताब्दी है। ये तैलंग ब्राह्मण थे तथा इनका वास्तविक नाम नियमानन्द था। कहा जाता है कि निम्ब वृक्ष पर रात्रि के समय सूर्य का साक्षात् दर्शन होने के कारण इनका नाम निम्बाकं या निम्बादित्य पड़ा। इनके मुख्य प्रन्थ हैं-'वेदान्तपारिजात सौरभ' (ब्रह्मसूत्र का स्वल्पकाय भाष्य), 'दशश्लोकी' (सिद्धान्त प्रतिपादक दस श्लोकों का संग्रह.) 'श्रीकृष्णस्तवराज' ( इसमें २५ श्लोकों में निम्बार्क मत का प्रतिपादन किया गया है) ब्रह्म या जीव के सम्बन्ध में निम्बार्क का सिद्धान्त भेदाभेद वा द्वैताद्वैत का प्रतिपादक है। इनके अनुसार जीव अवस्था भेद से ब्रह्म से भिन्न एवं अभिन्न दोनों ही है। इन्होंने रामानुज की भांति चित, अचित् तथा ईश्वर के स्वरूप का निरूपण किया है। चित् या जीव के स्वरूप को ज्ञानमय कहा गया है। जीव प्रत्येक दशा में कर्ता रहता है। इसलिए उसे कर्ता कहा गया है। वह संसारी दशा में तो कर्ता होता ही है, मुक्त दशा में भी कर्ता रहता है। इन्द्रियों के द्वारा विषय का भोग करने के कारण उसे भोक्ता कहते हैं । ज्ञान एवं भोग को प्राप्त करने के लिए उसे ईश्वर पर आश्रित होना पड़ता है, वह स्वतन्त्र नहीं होता । ईश्वर स्वतन्त्र है और जीव परतन्त्र । वह चैतन्य गुण एवं ज्ञानाश्रय होने के कारण ईश्वर के सदृश होते हुए भी नियम्यत्व गुण के कारण उससे पृथक् है। ईश्वर जीव का नियन्ता है और जीव नियम्य । ईश्वर स्वतन्त्र एवं नियन्ता होने के कारण इच्छानुसार जीव के साथ वर्ताव कर सकता है पर जीव सब प्रकार से ईश्वर पर आश्रित रहता है। जीव परिमाण में अणु है, किन्तु ज्ञान लक्षण के कारण उसे सुख-दुःख का अनुभव होता है। वह ईश्वर का अंश रूप एवं संख्या में अपरिमित है । ईश्वर अंशी अर्थात् सर्वशक्तिमान है किन्तु जीव उसका अंश है। जीव ईश्वर का शक्तिरूप है । अंशो हि शक्ति रूपो प्राह्यः । २।३ । ४२ । पर कौस्तुभ अचित् या चेतना से रहित पदार्थ को जगत् कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं-प्राकृत, अप्राकृत और काल ।
अप्राकृतं प्राकृतरूपकं च कालस्वरूपं तदचेतनं मतम् ।
मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्तादिभेदाश्च समेऽपि तत्र ॥ दशश्लोकी ३ । ईश्वर-निम्बाक ने ईश्वर की कल्पना सगुण रूप में की है. जो समस्त अविद्यादि प्राकृत दोषों से रहित, अशेष ज्ञान एवं कल्याण गुणों की राशि है ।
स्वभावतोपास्तसमस्तदोषमशेषकल्याणगुणेकराशिम् ।
व्यूहाङ्गिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम् ॥ दशश्लोकी ४ संसार में जो कुछ भी दिखाई पड़ता है या सुना जाता है उसके अन्तर एवं बाहर सभी जगह नारायण स्थित है
यन्च किन्धिज्जगदयस्मिन् दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च व सर्व व्याप्य नारायणः स्थितः ॥ ५॥
सिद्धान्त जाह्नवी पृ०५३ परमात्मा के परब्रह्म, नारायण भगवान , कृष्ण एवं पुरुषोत्तम नादि नाम हैं।