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जयदेव ]
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[जयदेव
साध्वी माध्वीकचिन्ता न भवति भवतः शर्करे कर्कशासि, द्राक्षे द्रक्ष्यन्ति केत्वाममृतमृतमसिक्षीरनीरं रसस्ते । माकन्द क्रन्द कान्ताधर धरणितलं गच्छ यच्छन्तिभावं
यावच्छृङ्गारसारस्वतमिह जयदेवस्य विष्वग्वचांसि ॥ गीतगोविन्द . यद्यपि 'गीतगोविन्द' की रचना गेय पदशैली में हुई है तथापि इसमें १२ सर्ग हैं। प्रत्येक सगं गीतों से युक्त है तथा सर्ग की कथा के सूत्र को निर्देश करने वाले वर्णनात्मक पद्य भी दिये गए हैं । सर्वप्रथम कवि ने चार श्लोकों में मंगलाचरण, प्रस्तावना, रचनोद्देश्य एवं कवि परिचय दिया है । तत्पश्चात् एक श्लोक में दशावतारों का वर्णन किया है । इसके बाद मूलग्रन्थ प्रारम्भ होता है। एक सखी द्वारा राधिका के समक्ष वसन्त वर्णन कराया गया है। वह विरहोत्कण्ठिता राधिका को दूर से ही गोपांगनाओं के साथ रासासक्त कृष्ण को दिखाती है। इस पर ईर्ष्या की भावना से भरकर राधिका मान करती है। जब कृष्ण को इसका पता चलता है तब वे अन्य गोपांगनाओं को छोड़कर, राधा की विरह-दशा का अनुभव कर, यमुना-तट के एक कुंज में उसका स्मरण करते हैं तथा उसके पास एक दूती भेजते हैं, जो राधा के निकट जाकर कृष्ण की विरह-वेदना का वर्णन करती है। राधा की सखी भी कृष्ण के पास जाकर उसकी विरहावस्था का वर्णन कर कृष्ण को मिलन के लिए प्रेरित करती है। तत्क्षण चन्द्रमा का उदय होता है और राधिका कृष्ण की प्रतीक्षा करती है, पर उनके नबाने पर पुनः मानिनी बन जाती है। कृष्ण आकर राधा के मान-भंग का प्रयास करते हैं पर वे असफल हो जाते हैं। कृष्ण चले जाते हैं और सखी राधिका को समझाती है तथा उसे अभिसरण करने की राय देती है । तत्पश्चात् राधा का प्रसाधन होता है तथा कवि उसकी अभिलाषा का वर्णन करता है।. सखी कृष्ण की उत्कण्ठा का वर्णन कर शीघ्र ही राधा को अभिसार करने के लिए कहती है। अभिसार के सम्पन्न होने पर कृष्ण की रतिश्रान्ति तथा राधा का पुनः कृष्ण से प्रसाधन के लिए निवेदन करने का वर्णन है। अन्त में 'गीतगोविन्द' की प्रशंसा कर कवि काव्य की समाप्ति करता है।
'गीतगोविन्द' के इस कथानक से ज्ञात होता है कि कवि ने मुख्यतः इसमें रासलीला का ही वर्णन किया है । इसमें 'श्रीमद्भागवत' के रास वर्णन से एक विशेषता अवश्य दिखाई पड़ती है और वह है-वसन्त ऋतु में रास का वर्णन करना । 'श्रीमद्भागवत' की रासलीला शरद् ऋतु में हुई है। कवि ने कहीं-कहीं 'श्रीमद्भागवत' से भी सहायता ली है फलतः इसमें कई स्थलों पर 'श्रीमद्भागवत' की छाया दिखाई पड़ती है
यह शृङ्गारपरक काव्य है। इसमें शृङ्गाररस के उभय पक्षों-संयोग एवं वियोग का सुन्दर एवं हृदयग्राही वर्णन किया गया। जयदेव को अपने समय की. प्रचलित साहित्यिक परम्पराओं एवं श्रृंगाररस के विविध पक्षों का पूर्ण ज्ञान था। अतः इनकी कविता में न केवल श्रृंगार अपितु काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों का पूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। जयदेव ने पुस्तक के प्रारम्भ में ही कह दिया है कि इसमें भक्ति, कला. विलास तथा कलित कोमलकान्त पदावली का मंजुल संमिश्रण है। इनके समय से पूर्व की गीतिकाव्य की दो प्रमुख धारा शृंगारिक बया धार्मिकता-'गीतगोविन्द' में