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योग-दर्शन ]
[ योग-दर्शन
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इस दृष्टि से
योग-दर्शन - महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रवर्तित भारतीय दर्शन की एक धारा । इसमें साधना के द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध पर बल दिया जाता है। इसका मूलग्रन्थ 'योगसूत्र' है, जिसके रचयिता पतन्जलि माने जाते हैं । विद्वानों का मत है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि और योग-दर्शन के प्रवर्तक पतजलि दोनों एक थे । [ दे० हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी भाग २ पृ० २३५ - २३५ डॉ० दासगुप्त ] 'योगसूत्र' का रचनाकाल ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी निश्चित होता है । पर यौगिक प्रक्रिया अत्यन्त प्राचीन है और इसका निर्देश संहिताओं, ब्राह्मणों और उपनिषदों में भी प्राप्त होता है । ' याज्ञवल्क्यस्मृति' से विदित होता है कि 'हिरण्यगर्भ' नामक आचार्य योग के वक्ता थे और पतञ्जलि ने केवल इसका अनुशासन किया था, अर्थात् वे योग के प्रवर्तक न होकर उपदेशक या प्रचारक थे । 'योगसूत्र' के ऊपर व्यास कृत भाष्य उपलब्ध होता है जो 'व्यासभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है । इस पर वाचस्पति मिश्र की टीका 'तत्ववैशारदी' है । विज्ञानभिक्षु ने 'व्यासभाष्य' के ऊपर 'योगवातिक' नामक टीका ग्रन्थ की रचना की थी। योगसूत्र की अन्य अनेक टीकाएँ भी उपलब्ध हैं ।
पातम्जल 'योगसूत्र' के चार विभाग (पाद) हैं-समाधिपाद, साधनापाद, विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद । प्रथम पाद ( समाधिपाद ) के विषय हैं-योग का स्वरूप, उद्देश्य और लक्षण, चित्तवृत्तिनिरोध के उपाय तथा अनेकानेक प्रकार के योगों का विवेचन । द्वितीयपाद में क्रियायोग, क्लेश, कर्मफल, उनका दुःखात्मक स्वभाव, दु:ख, दुःखनिदान, दुःखनिवृत्ति तथा दुःखनिवृत्ति के उपायों का निरूपण है । तृतीयपाद में योग की अन्तरङ्ग अवस्थाओं तथा योगाभ्यास द्वारा उत्पन्न होने वाली सिद्धियों का विवेचन है । चतुर्थ पाद में कैवल्य या मुक्ति का विवेचन तथा आत्मा, परलोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। 'योग' शब्द 'युज्' धातु ( युज् समाधी ) से बना है जिसका अर्थ समाधि है । पतन्जलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैंयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । यहाँ चित्त का अभिप्राय अन्तःकरण ( मन, बुद्धि एवं अहंकार ) से है । योग-दर्शन में यह विचार प्रकट किया जाता है कि आत्मा के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के लिए शारीरिक एवं मानसिक वृत्तियों का दमन किया जाय अर्थात् शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि और अहंकार पर विजय प्राप्त की जाय। इसके बाद यह ज्ञान हो जायगा कि शरीर, मन आदि से आत्मा सर्वथा भिन्न है तथा देश, काल एवं कारण के बन्धन से परे है। आत्मा नित्य और शास्वत है। इस प्रकार का अनुभव आत्मज्ञान कहा जाता है और इसकी प्राप्ति से मुक्ति होती है एवं दुःखों से छुटकारा. मिल जाता है। आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग-दर्शन में अध्ययन, मनन बोर निदिध्यासन का भी निर्देश किया गया है ।
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योग का अर्थ आत्मा और परमात्मा का मिलन न होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान से है, और यह तभी सम्भव है जब कि चित्त की समस्त वृत्तियों का निष हो जाय । योग के आठ अङ्ग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि । इन्हें योगांग कहा जाता है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह को यम कहते हैं। सदाचार के पालन को नियम कहते हैं। इसके पाँच अङ्ग