________________
मेषदूत ]
( ४३२ )
[ मेघदूत
उत्तरमेष में अलका का वर्णन, यज्ञ के भवन एवं उसकी विरहविदग्धा प्रिया का चित्र खींचा गया है। तत्पश्चात् कवि ने यक्ष के सन्देश का वर्णन किया है जिसमें मानव-हृदय के सौन्दर्य एवं अभिरामता का विमल चित्रण' है। ___ उत्तरमेघ में वियोगी यक्ष का सन्देश-कथन अत्यन्त ही हृदय-द्रावक एवं प्रेमिल. भावोच्छ्वास से पूर्ण है। इसके प्रारम्भ से अन्त तक यौवन के विलासों की कल्पना सिंचित है तथा उसमें निहित वियोग का मधुर राग हमारी हत्तन्त्री के तार को स्पंदित कर देता है। वियोगिनी यक्ष पत्नी के यथार्थ चित्र को अंकित कर उसके जीवन की करुण गाथा को अभिव्यक्ति दी गयी है । आलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा मत्साहश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती । पृच्छन्ती वा मधुरवचनां सारिकां पंजरस्था कच्चिदर्सः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति ॥ उत्तरमेघ २२ । उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां मनोवाझं विरचितपदं गेयमुद्रातुकामा। तन्त्रीमाी नयनसलिल: सारयित्वा कथंचियो भूयः स्वयमपि कृतां मूच्छंना विस्मरन्ती ॥ २३ । 'हे सौम्य, फिर मलिन वस्त्र पहने हुए गोद में वीणा रखकर नेत्रों के जल से भीगे हुए तन्तुओं को किसी तरह ठीक-ठाक करके मेरे नामांकित पद को गाने की इच्छा से संगीत में प्रवृत्त वह अपनी बनाई स्वरविधि को भी भूलती हुई दिखाई पड़ेगी।' २३ । ___महाकवि कालिदास ने वाल्मीकि रामायण से 'मेघदूत' की प्रेरणा ग्रहण की है। उन्हें वियोगी यक्ष की व्यथा में सीता-हरण के दुःख से दुःखित राम की पीड़ा का स्मरण हो आया है। कवि ने स्वयं मेघ की उपमा हनुमान से तथा यक्ष-पत्नी की समता सीता से की है-'इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा' उत्तरमेघ ३७ । रामचन्द्र ने हनुमान को सीता के पात भेजते समय अपनी मुद्रिका पहचान के रूप में दी थी, किन्तु कालिदास ने मूर्त चिह्न का विधान न कर यक्ष द्वारा मेघ को अनन्यज्ञात रति-विलास-रहस्य बताकर इस अभाव की पूर्ति कर दी है। इसकी कथा का आधार रामायण से ग्रहण करके भी कवि ने इसे सर्वथा नवीन रूप दिया है। मेघदूत के माध्यम से कवि ने प्रकृति के प्रति चेतमता में विश्वास प्रकट कर उसमें अपने हृदय का अनुराग उड़ेल दिया है। कवि को प्रसन्न-मधुरा वाणी 'मन्दाक्रान्ता' छन्द में अभिव्यक्त हुई है जिसकी प्रशंसा आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'सुवृततिलक' में की है'सुवशा कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता प्रवल्गति' ।
१-मेघदूत में प्रकृति के अत्यन्त सजीव स्वतः संवेद्य चित्र प्राप्त होते हैं जिन्हें 'ऋग्वेद' अथवा 'रामायण' के प्रकृति वर्णन की समता में रक्खा जा सकता है । २-इसमें सुख, दुःख, विरह-संयोग एवं प्रणय-पीड़ा का अत्यन्त सूक्ष्म एवं यथार्थ चित्र उरेहा गया है और इसे व्यक्त करने के लिए व्यंजक एवं मधुर भाषा प्रयुक्त हुई है। ३-मेघदूत में अनेक मंजुल भावों का सन्निवेश कर बीच-बीच में मुहावरों, वाक्यखण्डों तथा अर्थान्तरन्यास एवं दृष्टान्त अलंकारों का प्रयोग कर भाषा को स्पष्ट एवं सरल बना दिया गया है। ४-इसमें कवि की शास्त्रीयदर्शिता तथा विचारों की परिपक्वता भी प्रदर्शित होती है। कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा। नीचेगच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ उत्तर मेष ४६ । अर्थान्तरन्यास के उदाहरण