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कादम्बरी]
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[कादम्बरी
देता है। उसी कोटर में उसका जन्म हुआ है। एक दिन एक शबर-सेनापति अपनी सेना के साथ उसी मार्ग से निकलता है। एक वृद्ध शबर उस कोटर में स्थित उसके माता-पिता को मार डालता है और नीचे गिर जाने के कारण वैशम्पायन बच जाता है। देवयोग से हारीत नामक एक ऋषि आकर उसे आश्रम में ले जाते हैं और उसे अपने पिता जाबालि के आश्रम में रखते हैं। जावालि ने पवित्र जल से उसे प्रक्षालित कर बताया कि यह अपनी धृष्टता का फल पा रहा है। पुनः वे ऋषियों के पूछने पर उसके पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाते हैं ।
यहीं से वैशम्पायन एवं शूद्रक के पूर्वजन्म की कथा विदित होती है। उज्जयिनी के राजा तारापीड़ की रानी विलासवती सन्तान के अभाव में दुःखित है। उसने एक दिन रात्रि में स्वप्न देखा कि उसके मुख में चन्द्रमण्डल प्रवेश कर रहा है। निश्चित समय पर रानी को पुत्र होता है जिसका नाम चन्द्रापीड़ रखा जाता है। राजा के अमात्य शुक्रनास की पत्नी मनोरमा को भी उसी समय पुत्र उत्पन्न होता है जिसका नाम वैशम्पायन रखा जाता है। दोनों गुरुकुल में एक ही साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं। चन्द्रापीड़ युवराज पद पर अभिषिक्त किया जाता है और बाद में अपने मित्र वैशम्पायन को लेकर दिग्विजय के लिए निकल पड़ता है । दिग्विजय करने के पश्चात् वह आखेट के लिए निकलता है और किन्नरमिथुन की खोज करता हुआ अच्छोद सरोवर पर पहुंचता है। वहीं पर उसे शिवसिद्धायतन में एक सुन्दरी कन्या से भेंट होती है । युवराज के पूछने पर वह अपनी कथा सुनाती है। उस कन्या का नाम महाश्वेता है
और वह हंस नामक गन्धर्व एवं गौरी नाम्नी अप्सरा की पुत्री है। जब वह स्नान करने के लिए अच्छोद सरोवर पर आयी थी तभी उसने वहाँ पुण्डरोक नामक ऋषि. कुमार को देखा था जो अत्यन्त सुन्दर था। दोनों एक दूसरे को देखकर परस्पर आकृष्ट हो गये। जब महाश्वेता पुण्डरीक के सहचर कपिजल से उसके सम्बन्ध में पूछती है तो वह बताता है कि वह महर्षि श्वेतकेतु तथा देवी लक्ष्मी का मानस पुत्र है। कपिजल उससे पुण्डरीक के मदनावेश की बात कहता है और महाश्वेता उसमे मिलने के लिए चल पड़ती है किन्तु दुर्भाग्य से उसके पहुंचने के पूर्व ही पुण्डरीक का निधन हो जाता है । महाश्वेता उसके साथ सती होने का उपक्रम करती है तभी चन्द्रमण्डल से एक दिव्य पुरुष आकर पुण्डरीक के मृत शरीर को लेकर उड़ जाता है और उसे ( महाश्वेता को ) आश्वासन देता है कि उसे इसी शरीर से पुण्डरीक प्राप्त होगा, अतः वह मरने का प्रयास न कर पुण्डरीक की प्राप्ति की अवधि तक जीवित रह कर उसकी प्रतीक्षा करे। कपिजल भी दिव्य पुरुष के साथ चला जाता है और महाश्वेता उसके वचन पर विश्वास कर अपनी सखी नरलिका के साथ उसी सरोवर पर रहती है। युवराज चन्द्रापीड़ उसकी कथा सुनकर उसे सान्त्वना देकर रात्रि वहीं व्यतीत करता है बातचीत के क्रम में युवराज को ज्ञात होता है कि महाश्वेता की सखी कादम्बरी है जिसने महाश्वेता के अविवाहित रहने के कारण स्वयं भी विवाह न करने का निर्णय किया है। महाश्वेता कादम्बरी से मिलने के लिए जाती है और उसके आग्रह पर चन्द्रापीड़ भी उसका अनुसरण करता है। चन्द्रापीड़ और कादम्बरी एक