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रामायण ]
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[ रामायण
वे हँसती हैं । कहीं उनका जल वेणी के आकार का लगता है, कहीं भँवर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। गंगा का प्रवाह कहीं स्थिर और गम्भीर है, कहीं वेगवान् और चंचल ।"
रामायण का कवि उपमा, उत्प्रेक्षा प्रभृति शादृश्यमूलक अलंकारों के अतिरिक्त शब्दालंकारों का प्रयोग कर अपनी शैली को अलंकृत करता है । वाल्मीकि संस्कृत काव्य के इतिहास में 'स्वाभाविक शैली' के प्रवत्तंक माने जाते हैं, जिसका अनुगमन अश्वघोष तथा कालिदास प्रभृति कवियों ने पूरी सफलता एवं मनोयोग के साथ किया है । 'रामायण' में सहज और अकृत्रिम शैली के अतिरिक्त कहीं-कही अलंकृत शैली का भी प्रयोग है । सुन्दरकाण्ड का 'चन्द्रोदय वर्णन' में अन्त्यानुप्रास की मनोरम छटा प्रदर्शित की गयी है, किन्तु वहां पद्य अलंकार के दुष्प्रयोग के कारण बोझिल नहीं हो सका है और न शैली की कृत्रिमता से यानसिक तनाव उत्पन्न करता है । वाल्मीकि की सर्वाधिक विशेषता है उनका प्रकृत प्रेम । प्रकृति के कोमल भयंकर या अलंकृत रूपों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते हुए उन्होंने अपनी अपूर्वं निरीक्षणशक्ति का परिचय दिया है । प्रकृति चित्रण में कवि ने कहीं बिम्बग्रहणवाली अनाबिल अलंकृत शैली के
द्वारा प्रकृति का यथावत् चित्र उपस्थित किया है तो कहीं मानवीय भावनाओं की तुलना प्रकृति के क्रिया-कलाप से करते हुए अलंकृत शैली का निबन्धन कर स्वतःसंभवी अप्रस्तुत विधान का नियोजन किया है, किन्तु वह वैचित्र्यमूलकं अकृत्रिम चित्र की ओर ध्यान नहीं देता । कवि वक्ता या पात्र की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की झलक बाह्य प्रकृति में दिखाते हुए दोनों के बीच समन्वय स्थापित करता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि वाल्मीकि प्रकृति का सच्चा चितेरा है जो बहुविध रंगों के द्वारा भावों के आधारफलक पर उसका चित्र उरेहने में पूर्णतः सफल हुआ है जिसकी रेखाएं अत्यन्त सूक्ष्म एवं सहज हैं ।
कवि की लेखनी थकना
प्रकृति-चित्रण की भांति नारी के रूप चित्रण में या किसी विषय के वर्णन में कवि की लेखनी भावों की नवीन उद्भावना करती हुई मनोरम चित्र उपस्थित करने में पूर्ण समर्थ है । रावण के अन्तःपुर में शयनागार में अस्तव्यस्त पड़ी हुई रतिश्रम से नारियों का अनाविल चित्र अत्यन्त हृदयग्राही एवं स्वाभाविक है। इसी प्रकार मदविह्वला तारा के मादक रूप और योवन का चित्रण करने में नहीं जानती । नितम्बों तक प्रलम्बमान कांची के लोल नृत्य के वर्णन में कविप्रतिभा का सुन्दर रूप प्रदर्शित होता है । मानव प्रकृति के चित्रण में भी वाल्मीकि ने सूक्ष्म पयंवेक्षणशक्ति का परिचय दिया है । राम, सीता, भरत, हनुमान्, विभीषण, रावण आदि के चरित्रांकन में चरित्र-चित्रण का वैविध्य दिखाई पड़ता है । इनके राम मानवसुलभ गुणों से युक्त हैं, किन्तु उनमें गुणों के अतिरिक्त मानवीय दुर्बलताएं भी हैं, जिससे वे अतिमानव नहीं बन पाते और पूरे मानव के रूप में उपस्थित होते हैं । कथानक के संयोजन में कवि की उत्कृष्ट वर्णनात्मक शक्ति प्रकट होती है । वर्णनात्मक धारा की पूर्ण कल्पना तथा घटना सम्बन्धी सजीवता के लिए कवि ने अनेक विवरणों का प्रयोग किया है । कतिपय पात्रों के द्वारा देखे गए दुःस्वप्नों के द्वारा कथानक में तीव्रता एवं मार्मिकता आ गयी है । भरत एवं त्रिजटा के दुःस्वप्न ऐसें ही हैं। भारतीय जीवन की