________________
कालिदास ]
( ११३ )
[ कालिदास
के पात्रों के नाम और उनके जीवन की घटनायें साभिप्राय हैं ।" कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन - भूमिका पृ० २-३ |
आधारग्रन्थ - १. संस्कृत साहित्य का इतिहास - डॉ० ए० बी० कीथ २. संस्कृत कवि-दर्शन- डॉ० भोलाशङ्कर व्यास ३. कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन - डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ४. कादम्बरी ( संस्कृत - हिन्दी टीका ) - चौखम्बा प्रकाशन ५. कादम्बरी ( हिन्दी अनुवाद ) - अनुवादक ऋषीश्वरचरण भट्ट ।
कालिदास - महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ कवि एवं नाटककार तथा कविता कामिनी के विलास हैं । ये भारतीय साहित्य के सर्वश्रेष्ठ विभूति तथा प्राचीन भारतीय अन्तरात्मा के प्रतिनिधि हैं । इनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व सन्निहित है । ये सौन्दर्य-तत्त्व के चितेरे तथा सुन्दरम् को शिवम् के पुनीत आदर्श लोक की ओर मोड़ने वाले महान् सत्य-स्रष्टा हैं । भारतीय सौन्दर्य-दर्शन की सभी विभूतियाँ इनके साहित्य में समाहित हो गयी हैं । ऐसे रससिद्ध कवि का जीवन अद्यापि अंधकाराच्छन्न होकर अनुमान का विषय बना हुआ है । महाकवि ने अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर जो विचार व्यक्त किये हैं उनसे इनकी प्रकृति का कहा चलता है । 'रघुवंश' [ दे० रघुवंश ] महाकाव्य के प्रथम सगं में कवि ने अपनी विनम्र प्रकृति का परिचय दिया है । महान् प्रतिभाशाली कवि की उक्ति में भारतीय संस्कृति का मूलमन्त्र प्रतिध्वनित होता है कि उच्च पद पर अधिष्ठित होकर भी गर्व न करे। अपनी प्रतिभा को हीन सिद्ध करता हुआ कवि रघु जैसे तेजस्वी कुल के वर्णन पाता है तथा तिनकों से निर्मित छोटी नाव के द्वारा सागर को अपनी मूर्खता प्रदर्शित करता है
में अपने को असमर्थ पार करने की तरह
क सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तितीर्षुदुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । प्रांशुलभ्ये फले लोभादुदुबाहुरिव वामनः ॥ अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वं सूरिभिः । मणी वज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ॥ १।२-४
कवि विद्वानों की महत्ता स्वीकार करते हुए उनकी स्वीकृति पर ही अपनी रचना को सफल मानता है ।
आपरितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् । शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं
बलवदपि
कवि होने पर भी उसमें आलोचक की प्रतिभा विद्यमान है । वह प्रत्येक प्राचीन वस्तु को इसलिए उत्तम नहीं मानता कि वह पुरानी है और न नये पदार्थ को बुरा मानता है । पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् । परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः ॥
सन्तः
मालविकाग्निमित्र १२
५ सं० सा०
चेतः ॥ शाकुन्तल १२