________________
उत्तररामचरित ]
( ७१ )
| उत्तररामचरित
ॐ
है
आपूर्ण है कि चट्टान भी पिघल जाते हैं और बच्च• हृदय भी मार्मिक पीड़ा का अनुभव कर अप्रवाहित करने लगता है । नाटक के प्रथम अङ्क में करुण मिश्रित शृङ्गार का चित्रण किया गया है तथा चित्र-दर्शन, हास- विनोद एवं सीता का सम के वक्ष पर शयन करुण रस को अधिक गम्भीर बनाने के लिए पृष्ठाधार प्रस्तुत करते हैं राम अपवाद की बात के श्रवण करने से ही मूच्छित हो जाते हैं तथा संज्ञा आने पर भी उनकी मूर्च्छा अक्षुण्ण रहती है । द्वितीय एवं तृतीय अंक में पूर्वानुभूत पदार्थो को देख कर विरही राम की सुप्त व्यथा मूर्तिमन्त हो जाती है । चतुर्थ अङ्क के विष्कम्भक में कवि ने हास्यरस की योजना की है किन्तु वे इसमें सफल नहीं हो सके हैं । वस्तुतः भवभूति की गम्भीर प्रकृति हास्यरस के अनुकूल नहीं पड़ती । पन्चम अङ्क तथा पठ अ के विष्कम्भक में बीर रस का प्राधान्य है मोर वहाँ करुण रस गौण पड़ जाता है | सप्तम अङ्क के प्रारम्भ में ( गर्भात में )। करुण रस की प्रधानता है पर सीता के जल से प्रकट होने से दर्शक चकित हो उठते हैं और वहाँ अद्भुत रस की छटा छिटक जाती है । अन्त में ग्राम और सीता का पुनर्मिलन दिखाकर श्रृंगार रस ध की योजना कर दी गई हैं। AMER BY SIR CARS $ 1037 'उत्तररामचरित' में अवभूति की कला पूर्ण प्रीठि को प्राप्त कर कालिदास के समक्ष पहुँच गई है । कवि ने इस नाटक में जितना साहस्थ जीवन एवं प्रेम का परिक प्रदर्शित किया है, सम्भवतः उतना किसी भी संस्कृत नाटक में न हो सका है। इसमें जीवन की नाना परिस्थितियों, भावदशाओं तथा प्राकृतिक दृश्यों का अत्यन्त कुशलला तथा पूर्ण तन्मयता के साथ चित्रण किया गया है। प्रकृति के कोमल एवं भयङ्कर तथा मोहक और रूक्ष दृश्यों के प्रति कवि वे समानरूप से कृषि प्रदर्शित कर दोनों का चित्र उपस्थित किया है राम और सीता के प्रणय का इतना उदात्त एवं पवित्र भिय अन्यत्र दुर्लभ है । परिस्थितियों के कठोर नियन्त्रण में प्रस्फुटित राम की कतव्यनि तथा सीता का अनन्य प्रेम इस नाटक की महनीय देन है। इसमें नाटकीय कला कां चरम विकास तो होता ही है साथ ही काव्यात्मक महनीयता का भी अपना महत्त्व है । प्रेमिल भावनाओं का सजीव चित्रण तथा वियोग की यातनाथों का करुण दृश्य इस नाटक में चरमोत्कर्ष पर अधिष्ठित है । भवभूति ने इस नाटक में राम के बहुचर्षितदेवी एवं आदर्श रूप को मानवीय धरातल पर अधिष्ठित कर उन्हें प्राणवन्तः बना दियाहै राम और सीता विष्णु एवं लक्ष्मी के अवतार होते हुए भी साधारण विरही के रूपःमें उपस्थित किये गये हैं और इसमें कवि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। 'उत्तरराम चरित' में आद्यन्त गम्भीरता का वातावरण बना रहता है । भवभूति के गम्भीर surface में antarvवता का सर्वथा अभाव है और यही कारण है कि इसमें विदूषक का समावेश नहीं है । संस्कृत नाटकों की प्रवृत्ति के विरूद्ध कवि ने इसमें प्रकृति के रौद्ररूप का भी पूरी तन्मयता के साथ चित्रण किया है । बाल्मीकि रामायण की करुण कथा को संयोग पर्यवसायी बनाकर भवभूति ने न केवल मौलिक सूझ का परिध दिया है अपितु नाव्यशास्त्रीय मर्यादा की रक्षा करते हुए नैतिक दृष्टि से भी यह सिद्ध कर दिया है कि साधु पुरुषों का अन्त सुखमय होता है-धर्मो रक्षति रक्षितः
कवि ने